Thursday, April 14, 2016

हिंदी ग़ज़ल की गटर-गंगा +रमेशराज



   रमेशराज
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हिंदी ग़ज़ल की गटर-गंगा

+रमेशराज
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श्री यादराम शर्मा हिन्दी में ग़ज़ल के चर्चित हस्ताक्षर हैं। उनका कहकहों में सिसकियांनाम से ग़ज़ल संग्रह भी प्रकाशित हुआ है। वे अपने इस संकलन में जैसा मैंने पढ़ाभूमिका के अन्तर्गत ग़ज़ल के शिल्प पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि-‘‘ग़ज़ल की बह्र पर विशेष ध्यान दिया जाये। इसके अतिरिक्त अन्य बिन्दुओं पर भी ध्यान देना जरूरी है-जैसे मतला, मक्ता, शे, रदीफ एवं काफिया।’’ 
   रदीफ और काफियों को वे ग़ज़ल की प्राणवायु बताते हुए कहते हैं-‘‘यह जानना आवश्यक होता है कि रदीफ पूरी ग़ज़ल में एक ही रहता है। काफिया, तुकान्त का प्रतीक होता है, यह स्वरांत भी हो सकता है जैसे हवाके साथ लगाऔर हुआया गयीके साथ सदी’, ‘सगीऔर सभीआदि।
   श्री यादराम शर्मा की कही हुई बात को ही यदि थोड़ा-सा विस्तार दें तो अगर रदीफ पूरी ग़ज़ल में बदलता नहीं है तो काफिये का समान स्वर में आये बदलाव के आधार पर ही  निर्धारण या निर्वाह करते हैं। की तुक या की तुक या से किसी भी प्रकार नहीं मिला सकते। काफिया तभी काफिया है, जबकि वह समान स्वर के आधार पर निरंतर बदलाव का संकेत दे। ग़ज़ल के मतला शेर से ही यह निर्धारित किया जाता है कि स्वर के बदलाव का आधार किस स्थान पर या किस प्रकार किया जाये। मतला में यदि नदीकी तुक सदीसे मिलायी गयी है तो दीदोनों में समान होने के कारण और बदलाव के आधार बनेंगे, अतः आगे की तुक बदीया लदीआदि ही हो सकती हैं। इन तुकों के स्थान पर अगर कोई ग़ज़लकार सभी’, ‘रखी’, ‘बचीआदि तुकों का प्रयोग करता है तो हर प्रकार अशुद्ध  हैं। यदि मतला सदीकी तुक सभीसे मिलाकर कहा गया है तो ग़ज़ल के आगे के शेरों के क़ाफिये बची’, ‘बानगी’ ‘रोशनी’, ‘जी’, ‘चलीआदि के साथ हर प्रकार शुद्ध होंगे। लेकिन इसमें ध्यान देने की बात यह है कि मतला में आयी सदीऔर सभीतुकें आगे के शेरों में सभी’, सदी, ‘नदी’ ‘कभीआदि के रूप में नहीं आ सकतीं, वर्ना स्वर बदलने के आधार ही खत्म हो जायेंगे। अतः एक तुक का एक बार निर्वाह करने के बाद उसी तुक का दूसरी बार प्रयोग में लाना भी त्रुटिपूर्ण है। संयुक्त रदीफ-काफियों की ग़ज़ल के अन्तर्गत यदि मतला में कहांकी तुक जहांहै तो धुआं’, ‘निशां’, ‘बयांआदि तुकें आगे के शेरों में किसी प्रकार सम्भव नहीं। ऐसी ग़ज़ल में सिर्फ हांको तुक के रूप में प्रयोग करना, इस बात का संकेत है कि कवि ने इस ग़ज़ल से रदीफ़ को ही ग़ायब कर डाला है। ऐसी रचना ग़ज़ल नहीं कही जा सकती।
   ग़ज़ल कहने या लिखने के लिये ग़ज़ल के शास्त्रीय  सरोकारों, मूल स्त्रोतों, नियमों-उपनियमों अर्थात् ग़ज़ल की शिल्प सम्बन्धी  व्यवस्था में रद्दो-बदल करने की छूट किसी भी रचनाकार को नहीं है। ग़ज़ल कहने का अर्थ ही यह है कि ग़ज़ल की मूल संरचना की पकड़ की जाये। जैसे दोहे की दोनों पंक्तियों में 24-24 मात्राएं होती हैं और इन पंक्तियों के अन्त में दीर्घके बाद लघु स्वरआता है। इन पंक्तियों से 24-24 मात्राओं की संख्या घटा या बढ़ा दी जाये अथवा अन्त के [ दीर्घ के बाद लघु स्वर ] क्रम को बदल दिया जाये तो दोहा, दोहा नहीं रहता, ठीक इसी प्रकार ग़ज़ल अपनी छन्द सम्बन्धी संरचना की मूलभूत विशेषताओं से कटकर, अपने ग़ज़लपन को खो देती है। अतः ग़ज़ल के छन्द में मात्राएँ बढ़ाकर और उन्हें गिराकर पढ़ने या लिखने का आधुनिक तरीका भले ही मान्य होता जा रहा है लेकिन यह तरीका हर प्रकार त्रुटिपूर्ण होने के साथ-साथ इस बात का भी संकेत देता है कि एक छंद में दूसरे छंद का द्वंद्व अन्तर्निहित है।
   आजकल हिन्दी में ग़ज़ल लिखने का चलन, फैशन की तरह रचनाकारों पर सवार है। जिसे देखो, उसे ही ग़ज़ल का बुखार है। ग़ज़ल के शिल्प की हत्या करते हुए ग़ज़ल लिखने का अन्दाज आज कोढ़ में खाज पैदा कर रहा है। जिन लोगों को ग़ज़ल कहते समय ग़ज़ल के शास्त्रीय सरोकारों का निर्वाह करने में कठिनाई हो रही है, वे इसे सरल बनाने के हास्यास्पद तरीके गिना रहे हैं और गर्व से बता रहे हैं कि-‘‘ग़ज़ल में मतला और मक्ता के प्रयोग, शेर की स्वतंत्रता, रुमानी कथ्य, सीमित बह्र और गेयता का निषेध होना चाहिए।’’
अर्थ यह कि ग़ज़ल और हिन्दीग़ज़ल में कुछ तो भेद होना ही चाहिए। यह सब बातें प्रसंगवशपत्रिका के हिन्दीग़ज़ल विशेषांक 1994 में साक्ष्य के रूप में मौजूद हैं। ग़ज़ल से हिन्दी ग़ज़ल में भेद करने की यह लालसा ग़ज़ल के शिल्प में कितने छेद करेगी, इसकी चिन्ता न करते हुए और हिन्दी ग़ज़लकारों में नया जोश भरते हुए श्री महेश अनघ समझाते हैं कि-‘‘कथ्य की विभिन्नता रहते कभी-कभी ऐसी स्थिति आ जाती है कि एक शेर के कथ्य को दूसरा शेर काट देता है, अतः जरूरी यह है कि एक पूरी ग़ज़ल में जिस कथ्य को उठाया जाय, अन्त तक उसका निर्वाह किया जाये।’’
   तेवरी को अपरिपक्वता का जामा पहनाने वाले श्री महेश अनघ जैसे रचनाकार इस प्रकार ग़ज़ल के ग़ज़लपन की हत्या कर, ग़ज़ल को कौन-सा परिपक्वता का जामा पहना रहे हैं, यह बात सहज तरीके से व्याख्यायित की जाये तो इतनी भर है कि हिन्दी में ग़ज़ल के नियमों से इसलिये छूट ली जा रही है ताकि ग़ज़ल की गटर-गंगा को भी महिमा-मंडित किया जाये। हिन्दी में औसत ग़ज़ल-विशेषांकों से प्रसंगवशका यह हिन्दी ग़ज़ल विशेषांक भले ही सारगर्भित है और इसकी उपादेयता को नकारा नहीं जा सकता है। लेकिन हिन्दी में ग़ज़ल के नियमों से छूट लेने की लूट भी इसमें दृष्टिगोचर होती है। इस अंक में शेरजंग गर्ग रूठे’, ‘झूठे’, ‘अंगूठेकी तुक सीना ठोक कर फूटेही नहीं मूठेंसे भी मिलाते हैं और इस प्रकार हिन्दी ग़ज़लकार कहलाते हैं।
   पद्मश्री गोपालदास नीरजख्याति प्राप्त गीतकार, होशियार और समझदार रचनाकार हैं, उनके हिस्से में सरकारी पुरस्कार हैं। अतः वह मतला में चलायाकी तुक बनायासे मिलाने के बाद बुलायाऔर फिर बुलायाजैसी स्वर पर ही आघात करने वाली तुकों को अमल में लायें तो उन्हें टोक कौन सकता है? रोक कौन सकता है?
   प्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामदरश मिश्र हिन्दी साहित्य के प्रकाशवान नक्षत्र हैं। उनके मौलिक लेखन-कर्म के चर्चे सर्वत्र हैं। श्री वशिष्ठ अनूप इस विशेषांक के पृ. 66 पर मिश्रजी की तारीफ करते हुए कहते हैं कि-‘‘ इन शेरों में परिवर्तन की चिन्गारी हैपरोपकार की भावना भी और एक अच्छे इन्सान की ख्वाहिशें भी।’’
लेकिन उनके द्वारा उद्घृत ग़ज़ल में हवाकी तुक छुवा’, ‘नवा’, ‘गंवाके बाद दुआतक पहुँचते-पहुँचते इस कदर स्वाराघात करने लगती है कि ग़ज़ल के शुद्ध क़ाफियों का बोध् शोध का विषय बन जाता है, यह ग़ज़ल का हिन्दी ग़ज़ल से कैसा नाता है?
   श्री चन्द्रसेन विराट की दूसरी ग़ज़ल के मतला में दरबारकी तुक हुंकारसे मिली है। आगे यह ग़ज़ल हुंकारको त्यागकर मक्कार’, ‘बदकार’, ‘सरकार’, की फटकारऔर ललकारको भी गले लगाने से आनाकानी नहीं करती। दरबारकी परिधियों में कैद इस ग़ज़ल के अन्य क़ाफियों से यह पुकारउभरती है कि क़ाफियों की बेतुकी मार’ ‘यारहम क्यों झेलें ? ऐसे में विराटजी से यह कहने की हिम्मत कौन जुटाये कि विराटजी अगर ग़ज़ल ही लिखनी है तो सही तुकें ले लें
   श्री राजेन्द्र तिवारी की कलाकारी आज हिन्दी में खुशबू की तरह जारी है, इनके हिस्से में ग़ज़ल की झण्डेबरदारी है। इस विशेषांक के पृ.85 पर वे तुकों के रूप में कलमकारोंको कारोंमें बिठाते हुए, इनको अखबारोंको दरबारोंतक ले जाते हैं वहां दीवारोंपर तुकों के रूप में बंटवारोंके नारे लगाते हैं। इस प्रकार इस ग़ज़ल के सबकेसब क़ाफिया सिसकते हैं।
   श्री नित्यानंद तुषार अर्थात् हिन्दी के प्रतिनिधि  ग़ज़लकार की इसी विशेषांक के पृष्ठ 89 पर छपी ग़ज़ल की शक़ल बिना रदीफ के स्वर के आधार पर गी’,‘नी’, ‘मी’, ‘दी’, ‘डीके माध्यम से बदलाव का सही आधार ज़रूर खड़ा करती है लेकिन इन्हीं तुकों में दो बार भीआने से [ रदीफ के गायब हो जाने के साथ-साथ ] सही क़ाफियों के गायब होने का प्रमाण भी मिलता है। इसतरह हिन्दीग़ज़ल में कौन-सा गुल खिलता है?
   डॉ. मोहदत्त साथी पृ. 109 पर अपनी ग़ज़ल में दुमदारकी तुक असरदार’, ‘किरदार’, ‘सरदारसे मिलायें और उसमें दरबारऔर सरकारको भी निबाहें अर्थात् ग़ज़ल को हिन्दी ग़ज़ल बनायें तो असहमति कैसी, दुर्गति कैसी?
   श्री अंसार कम्बरी की जल्वागरी भी पृ. 90 पर यूँ उतरी है। इस पृष्ठ पर वे तुक मतसे स्वागतऔर दलगतनिभाते हैं और इस प्रकार हिन्दीग़ज़लकार हो जाते हैं।
   श्री शिवओम अम्बर की दूसरी ग़ज़ल में आचरणका क़ाफिया वैयाकरणसे मिलने के बाद अन्तकरणके संस्करणकी किस शुद्धता में खिला है, क्या यह भी ग़ज़ल के हाथों में प्याले की जगह मशाल थमाने का सिलसिला है?
   श्री महेश अनघ जब ग़ज़ल को हिन्दी ग़ज़ल बनाने के साथ, छंद, तुक, लय के हर परिचय के सदाशय को रूमाल दिखाकर विदा करने पर ही उतावले हैं तो उन्हें यह कौन समझायेगा कि तोड़ेगाकी तुक तोड़ेगाया छोड़ेगाकी तुक छोडे़गाअशुद्ध हैं। यह बताने का अर्थ है कि उनका हिन्दी ग़ज़ल की स्थापना का महान सपना टूट जायेगा।
   तेवरी भले ही अनपढ़ों के गढ़ों में कैद हो लेकिन हिन्दीग़ज़ल के पंख आसमान को छूने के लिये जिस प्रकार फड़फड़ा रहे हैं, इस तथ्य को इस विशेषांक में श्री मलखान सिंह सिसौदिया इस प्रकार बता रहे हैं- श्री सिसौदिया की ग़ज़ल की चाल-ढाल में ऐसा कमाल है कि समांत [ रदीफ ] मुझे क्या हुआसे पहले अगर चार बार पाताआता है तो दो बार बतातेक़ाफिया बनने का प्रयास करता है और कुल मिलाकर यह क़ाफियों का मिलान घूमता हूंके स्वर में भुस की तरह बिखरता है।
   अगर हम यादराम शर्मा की बात को पुनः उठायें और यह बतायें कि रदीफ और क़ाफिया ग़ज़ल की प्राणवायु होते हैं तो उल्लेखित ग़ज़लों से यही प्राणवायु फरार है। कुल मिलाकर औसत हिन्दी ग़ज़ल बीमार है। पर हिन्दी ग़ज़लकार है कि डॉ. राकेश सक्सेना [ प्रसंगवश, हि..वि.पृ.114 ] के रूप में मतला में मचलनेकी तुक संभलनेसे मिलाने की बाद आगे के नये क़ाफिये गड़ने’ ‘झगड़़नेऔर लड़नेभी गढ़ रहे हैं और यह कहकर हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं कि-
गंगाजली में तुलसी, पीपल की छाँव से
ऋषियों की भाव-भूमि में पलने लगी ग़ज़ल।
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001

मो.-9634551630  

हिंदी ग़ज़ल क्या एक गीत का नाम है ? +रमेशराज



                 रमेशराज   
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हिंदी ग़ज़ल क्या एक गीत का नाम है ? 

+रमेशराज
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   ग़ज़ल हिन्दी या उर्दू, किसी में भी लिखी जाये, लेकिन अपने शास्त्रीय सरोकारों के साथ लिखी जाये। ग़ज़ल के ग़ज़लपन को समाप्त कर ग़ज़लें न तो कही जा सकतीं हैं, न लिखी जा सकती हैं। इसे हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि ग़ज़ल के नियमों, उपनियमों की हत्या कर हिंदी में ग़ज़ल को प्राणवान बनाये जाने का कथित सुकर्म आज युद्धस्तर पर जारी है। काव्य-कृति सीप में संमदरभी एक ऐसी कृति है जिसमें शिल्पगत कमजोरियों को ग़ज़ल की खूबी बताकर हिंदीग़ज़लघोषित किया है। इस ग़ज़ल संग्रह के रचयिता ग़ज़ल के क्षेत्र के ख्याति प्राप्त ग़ज़लकार डॉ. रामसनेहीलाल यायावरहैं।
   इस संग्रह की भाषा, शिल्प और कथ्यगत कमजोरियों को पुष्ट करते हुए संग्रह की भूमिका में डॉ. उर्मिलेश लिखते हैं कि-‘डॉ. यायावर ने उर्दू ग़ज़ल के पारंपरिक मिथक को तोड़ते हुए अलग हटकर काम किया है। मसलन, उर्दू ग़ज़ल में हर शेर स्वतंत्रा सत्ता रखता है, लेकिन डॉ. यायावर की अधिसंख्यक ग़ज़लों के शेर एक ही विषय को आगे बढ़ाते हैं।...डॉ. यायावर की ज्यादातर ग़ज़लें मात्रिक छंद में लिखी गयी हैं। उर्दू में ग़ज़लें कही जाती हैं। डॉ. यायावर ने ग़ज़लें लिखी हैं। इस प्रक्रिया में उनका गीतकार-रूप परोक्ष रूप से हावी रहा है।’’
   डॉ. उर्मिलेश के तथ्यों की रोशनी में यदि इन कथित ग़ज़लों का मूल्यांकन करें तो ग़ज़लों से ग़ज़ल का प्राण-तत्त्व कथ्य [ प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत ] तो गायब है ही, ढाँचे [ शिल्प ] की पहचान वाली वे विशेषताएँ भी लुप्त हैं , जिनसे ग़ज़ल का ग़ज़लपन पहचाना जा सकता है। पारंपरिक मिथक को इस कदर तोड़ा गया है कि ग़ज़ल की मुख्य विशेषता-‘हर शेर के कथ्य की स्वतंत्र सत्ताको भी तहस-नहस कर डाला गया है। गीत-शैली में लिखी गयीं इन कथित ग़ज़लों में ग़ज़ल की तो बात छोडि़ए, ग़ज़लांश कितना है, यह भी शंका की गिरप्फत में है।
   प्रथम ग़ज़ल के मतला-‘कुछ धरती कुछ अम्बर बाबा, माया और मछन्दर बाबाके माध्यम से कवि क्या संदेश देना चाह रहा है, बिल्कुल अस्पष्ट है। भाई धरती, अंबर, माया और मछंदर हैं तो हैं, इसमें बाबा क्या कर सकते हैं?
   ग़ज़ल की एक विशेषता और होती है-उसका बह्र-बद्ध  होना। डॉ. उर्मिलेश के मतानुसार तो यह विशेषता भी इस ग़ज़लों से लुप्त है क्योंकि ये मात्रिक छंदों में कही नहीं, ‘लिखी गयीहैं। क्या ग़ज़ल कहनेके स्थान पर लिखनेसे उर्दू ग़ज़ल के स्थान पर हिंदी ग़ज़ल हो जाती है? हिंदी में ग़ज़ल के सिद्दांतों की ये कैसी जलती हुई दीपक-बाती है जो ग़ज़ल के नाम पर ग़ज़ल का घर जलाती है।
   ग़ज़ल इस तर्क के साथ कि-‘‘भूख और प्यास से मारी हुई इस दुनिया में इश्क ही हकीकत नहीं, कुछ और भी है..’’ [ डॉ. रामनिवास शर्मा अधीर’, सीप में समंदर, पृ.6 ], यदि नयी हकीकत-‘‘व्यवस्था के ठेकेदारों के विरुद्ध कलमबंद बयान [ सीप में समंदर, डॉ. यायावर ] से रु--रू हो सकती है तो इसी संग्रह के पृ. 26 पर प्रकाशित ग़ज़ल का प्रेमिका को बाँहों में भरने का जोश’, कौन-से आक्रोश की हकीकत या अभिव्यक्ति है? ‘होश में हैं फिर भी पैमाना हमारा क्यों नहीं/ हम हैं, साकी है, ये मयखाना हमारा क्यों नहीं है?’ के  माध्यम से डॉ. यायावर आखिर कहना क्या चाहते हैं? क्या मयखाने में बैठकर शराब के जाम पर जाम गले में उतारते हुए छैनी-हथोड़े की बात करना वैचारिक मैथुन के अतिरिक्त किसी और रूप में स्वीकृत किया जा सकता है? प्रेमिका को बाँहों में भरकर व्यवस्था के विरुद्ध की गयी तलवारबाजी क्या एक साथ दो-दो मोर्चों पर सफल हो सकती है? क्या सीत्कार से पैदा हुए इस नकली चीत्कार का ही नाम हिंदीग़ज़ल है? ग़ज़ल से उसकी मूल आत्मा उसके शिल्प अर्थात् उसकी काया को भी क्षत-विक्षत करके हिंदीग़ज़ल को बनाना है तो ऐसी काया पर आत्ममुग्ध हिंदी के ग़ज़लकारों या इसके पक्षधरों के समक्ष कोई तर्क रखना ही बेमानी है।
   ‘सीप में समंदरग़ज़ल संग्रह की ग़ज़लें चीख-चीख कर इस बात का प्रमाण देती हैं कि इनमें ग़ज़ल का ग़ज़लपन सिसक रहा है। यथा-पृ. 30 पर ग़ज़ल के मतले से काफिया ही गायब है तो अन्य काफिये मौनको मौनऔर कौनको कौनसे मिलते हुए हाँफते हुए नजर आते हैं। ग़ज़ल में काफियों की निकृष्ट व्यवस्था देखिए-
या तो संवादों में विष है, या फिर केवल मौन है,
प्रश्नाकुल है आज समय का यक्ष, युध्ष्ठिर मौन है।
या तो जब-जब सुने आपने या निर्जन में दुहराये,
वरना अपने इन गीतों को सुनने वाला कौन है?
कातिल बोला है चिल्लाकर किया हुआ दुहराऊँगा,
डरकर सहमे उड़े कबूतर किंतु अदालत मौन है।
कोई कमरे में खिड़की से चुपके-चुपके कूद गया,
कुर्सी पूछ रही है यारो! दरवाजे पर कौन है।
   पृ. 95 पर श्रीमानकी तुक प्राण’, पृ. 71 पर भूमिष्ठ की तुक उच्छिष्ट’, पृ.57 पर मादाकी तुक राधाया आधा’, पृ.50 पर सुलायाकी तुक लाया’, पृ. 47 पर जलताकी तुक घुलता’, पृ.39 पर तमाशाकी तुक भाषाया आसाआदि यदि उत्कृष्ट काफियों के नमूने बन सकते हैं तो हिंदी ग़ज़ल के ऐसे समर्थक ग़ज़ल के नाम पर जितना चाहें उतना तन सकते हैं। जहाँ तक इन ग़ज़लों में बह्र के स्थान पर मात्रिक छंदों के प्रयोग का सवाल है तो इससे भले ही ग़ज़ल के ग़ज़लपन का एक और अंग भंग और बदरंग होता हो, किंतु इन ग़ज़लों में मात्रिक छंदों का प्रयोग भी शुद्ध  हुआ हो, यह भी संदिग्ध है। पृ. 73 पर प्रकाशित ग़ज़ल के दूसरे शेर के दूसरे मिसरे के साथ-साथ ऐसी कई अन्य ग़ज़लें भी इस तथ्य की गवाह हैं कि हिंदी-छंदों के नाम पर भी एक रोग का योग है। अस्तु सीप में समंदरग़ज़ल संग्रह भले ही अपने कथ्यात्मक ओज के लिये प्रशंसनीय है किंतु इन ग़ज़लों में ग़ज़लपन कितना है, इसे लेकर कुहरा घना है।
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001

मो.-9634551630  

ग़ज़ल के क्षेत्र में ये कैसा इन्क़लाब आ रहा है? +रमेशराज



                 रमेशराज    
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ग़ज़ल के क्षेत्र में ये कैसा इन्क़लाब आ रहा है?

+रमेशराज
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   ग़ज़ल को प्रधानता से छापने वाली पत्रिका लफ्ज़-2’ सम्मुख है। पत्रिका का आलोक, बिना किसी रोक-टोक अन्तर्मन की गहराइयों को ऊर्जावान बनाता है। पत्रिका पढ़ते-पढ़ते एक जादू-सा छा गया। अनेक ग़ज़लों का कथन, मौलिकपन के साथ संवाद करता हुआ उपस्थिति होता है। सहज-सरल विधि से कही गयी अनेक ग़ज़लों का विमल स्वरूप, जाड़े की धूप-सा प्रतीत होता है। इन ग़ज़लों में प्रशंसनीय और वन्दनीय बहुत कुछहै।
   इस अंक में एक ओर जहाँ ग़ज़लों के उत्तम नमूने अपनी सुन्दर छटा बिखेरते हैं, वहीं कई ग़ज़लें ऐसी भी हैं, जिनसे प्राणवायु [ रदीफ और काफिया ] अनुपस्थित हैं। श्री अहमद कमाल की ग़ज़ल [ पृ. 37 ] के मतला में आयाऔर हुआतुकों का निर्वाह हुआ है। रदीफ की अनुपस्थिति में कही गयी इस ग़ज़ल ने कौन-सी ऊचाईयों को छुआ है? इस ग़ज़ल में आगे चलकर काफिये की सुव्यवस्था भी तब बिखर जाती है, जब आयाकी  तुक आयाकी माया [ काफिये को खोकर ] रदीफ की काया बन जाती है। इस प्रकार यह ग़ज़ल अपने ही ग़ज़लपन के विरुद्ध चाकू की तरह तन जाती है।
   ठीक इसी प्रकार की सही तुकों की लाचारी या बीमारी का क्रम, परवेज अख्तर, कैसर-उल-जाफरी, विकास शर्मा राज’, सरफराज, शाकिर, महेश जोशी, शशि जोशी, शारिक कैफ़ी और कई अन्य की ग़ज़लों को बेदम किये है। क्या समांत और स्वरांत अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था की हत्या कर, ग़ज़ल को प्राणवान बनाया जा सकता है? क्या तुकों के इस प्रयोग को सार्थक ठहराया जा सकता है?
   इसी अंक में ग़ज़ल का एक दूसरा पक्ष भी यक्ष की तरह खड़ा है, जिसका हर सवाल ग़ज़ल के वक्ष में काँटे की तरह गड़ा है। श्री शहरयार की ग़ज़ल के घटक फाइलातुन, फाइलातुन, फाइलुनहैं। इन्हें मिलाकर ही सम्भवतः यह रचना छन्दबद्ध और लयबद्ध की गयी है। इस ग़ज़ल के चौथे शेर की पहली पंक्ति [ रेत फैली और फैली दूर-दूर ] के दूर-दूरशब्द फाइलुनघटक द्वारा व्यक्त किये गये हैं। फाइलुनके अनुसार क्या शब्दों की मात्रा गिराकर इन्हें दर-दूरया दूर-दरपढ़ा जायेगा? इस पंक्ति को लयभंगता से कौन बचायेगा?
   श्री अशरत रजा की ग़ज़ल के घटक फाइलातुन, मफाइलुन, फेलुनहैं। इस ग़ज़ल के दूसरे शेर की तीसरी पंक्ति [ वह है जैसा कुबूल है यारो ] के प्रारम्भ में ही वह है जैसाशब्दों के बीच फाइलातुनघटक बुरी तरह घायल हो जाता है। यह पढ़ने वाले पर निर्भर है कि वह यहाँ किस शब्द या अक्षर को गिराता है। ठीक इसी प्रकार छन्द की लय का मकरन्द शारिक कैफी की ग़ज़ल के चौथे शेर की दूसरी पंक्ति [ हाँ इक उम्मीद सही, हमेशा थी ] में  हाँ- इक उम्मीदके बीच कसैला होकर उभरता है।
ग़ज़ल में मात्राएँ क्यों गिरायी जाती हैं? क्या बिना मात्रा गिराये ग़ज़ल नहीं कही जा सकती? घटक या घटक समूह के अनुरूप ही शब्दों को सँजोना थोड़ा दुष्कर कार्य अवश्य है, लेकिन घटक या घटक-समूह के अनुरूप निर्मित शब्द विन्यास ग़ज़ल के लयात्मक सौन्दर्य में वृद्धि ही करता है। ओज ही भरता है।
   उर्दू में ग़ज़ल को कहे जाने के लिए अगर बह्र का प्रयोग घटकों के योग से सम्पन्न होता है तो हिन्दी में इसी प्रकार के घटक, गण के रूप में प्रयोग किये जाते हैं, जैसे जगण, तगण, सगण, मगण आदि। इधर अगर घटक फैलुनहै तो उधर सगणके रूप में सलगाहै। संत तुलसीदास की एक पंक्ति प्रस्तुत है- उक्त पंक्ति में सगण के रूप में सलगाघटक का मात्राओं के क्रम [ लघु लघु दीर्घ ] के अनुसार बिना मात्रा गिराये सफल निर्वाह हुआ है, जिसका विभाजन [ तक़्ती ] इस प्रकार किया जा सकता है-
पुर ते, निकसीं, रघुवी, र वधू , धरि धी , र दये, मग में,  डग द्वै।
सलगा, सलगा, सलगा, सलगा, सलगा, सलगा, सलगा, सलगा।
   वर्णिक छन्दों के अतिरिक्त हिन्दी में मात्रिक छंद भी हैं, जिनमें मात्राओं की गिनती कर छन्द पूरा किया जाता है। मात्रिक छंदों में [ वर्ण के अनुरूप ] घटक या घटक-समूह का प्रयोग नहीं होता। उर्दू में घटक या घटक-समूह का ही प्रयोग होता है, किंतु इन घटकों के प्रयोग का अर्थ तब व्यर्थ अनुभव होता है, जब घटक के वर्ण या अक्षर के अनुरूप प्रयोग नहीं मिलते। प्रयोग के अनुरूप की तो बात छोड़ें, चाहे जब-चाहे जहाँ मात्रा गिराने का चलन, एक फैशन बनता जा रहा है। ग़ज़ल के क्षेत्र में ये कैसा इन्क़लाब आ रहा है?
   हिन्दी में यदि घटक सलगाके माध्यम से पुर ते, निकसीं, रघुवी, ‘र वधू आदि शब्द-समूह ज्यों के त्यों बनाये जा सकते हैं तो उर्दू में घटक फेलुनके समान शब्द-समूह जैसे आ अब’, ‘ले मत’, ‘ है नमके स्थान पर रख-अब’ ‘रख जा’, ‘सुन ले’, शब्द समूह बनाया जाना क्या घटकों की उठापटक को दर्शाना नहीं हैं? बह्र का एक मात्रिक छंद बन जाना नहीं हैं?
   इन तब तथ्यों को प्रस्तुत करने के पीछे मेरा उद्देश्य न तो यह दर्शाना है कि मैं कोई साहित्य का महान पंडित हूँ या हिन्दी और उर्दू कविता के किसी विशेष ज्ञान से महिमामंडित हूँ। मैं तो साहित्य का एक बालक मात्र हूँ और निरंतर कुछ न कुछ सीखने की प्रक्रिया में हूँ। अपने अल्पज्ञान या अज्ञान को सहज स्वीकारता हूँ। मेरा उद्देश्य यह भी नहीं है कि हिन्दी और उर्दू की सांस्कृतिक साझेदारी को नष्ट किया जाये। इस पहचान का योग ही तो हिन्दुस्तान या भारतवर्ष है, इस बात को कहते हुए मुझे कोई विषाद नहीं, हर्ष ही हर्ष है। यह तो एक विचार-विमर्श है, जिसकी मिठास में कड़वेपन का आभास उत्पन्न नहीं होना चाहिए।
अतः आइए-इस सांस्कृतिक साझेदारी के एक अन्य पहलू पर भी विचार करें- इसी अंक में आपके खतके अंन्तर्गत अशोक अंजुम, राजेन्द्र रहबर के पत्र और उन पर सम्पादक एवं श्री नौमान शौक का स्पष्टीकरण भी पढ़कर लगा कि श्री नौमान शौक विद्वान आलोचक हैं, इसलिये उनकी हर बात का अर्थ, समर्थ न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? शब्दों के तद्भव और देशज रूपों से चिढ़ रखने का उनका अभ्यस्त मन, शब्दों की तत्समता में ही अन्ततः रमता है। तभी तो उनकी आलोचना का शब्दों के मूल उद्गम से कुछ अधिक ही नाता है। किन्तु यह कैसी विषमता है कि इसी अंक में प्रकाशित उनकी ग़ज़ल के बदन में [ मन में नहीं ] भटकी सदा जब गुंजायमान होती है तो यह पता ही नहीं चलता कि उन्होंने इस अंक में प्रकाशित अपनी ग़ज़ल में जिसकोभी पहन रखा है, ‘उसेपैंट की तरह पहन रखा है या शर्ट की तरह पहना है या यह कोई गहना है? इस बारे में हम जैसे मंदबुद्धि को कुछ नहीं कहना है। अतः स्वीकारे लेते हैं कि किसी को इस प्रकार पहन कर किया गया, उनका यह अलौकिक कर्म, लौकिक रूप से सुन्दर दिखने का ही प्रयास होगा।
उनकी ग़ज़ल के इस सौन्दर्य-बोध के मध्य यदि रखाशब्द रक्खा[ रक्षा-बंधन  की राखीका बड़ा रूप ] को भी ध्वनित करने लगे तो चलेगा। तत्सम शब्द प्रस्तरके स्थान पर पत्थरभी भलेगा [ भला लगेगा ]। इस मौन स्वीकृति के उपरांत, यदि शौकजी जैसा ही कोई सम्भ्रांत आलोचक अपने सवाल में यह मलाल दर्शाने लगे कि कवि या शायरों को तत्सम् शब्द ही अपनाने चाहिए तो बात अटपटी अनुभव होती है।
   हिन्दी और उर्दू वाले समान रूप से अपनी कविताओं में अचरज’, अनमोल’, ‘अँगूठा’, ‘कीड़ा’, ‘काठ’, ‘कोयल’, ‘नींद’, ‘छाता’, ‘नाम’, ‘गाँव’, ‘गधा’, ‘दाँत’, ‘घिन’, ‘बड़ा’, ‘डंक’, ‘आम’, ‘आसरा’, ‘आँसू’, ‘नंगा’, ‘आग’, ‘इकट्ठा’, ‘तिनका’, ‘थल’, ‘जमुना’, ‘काम’, ‘जीभ’, ‘खेत’, ‘नैन’, ‘नाच’, ‘गिद्ध’, ‘दूधआदि शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं, जबकि इनका तत्सम रूप क्रमशः आश्चर्य’, ‘अमूल्य’, ‘अंगुष्ठ’, ‘कीट’, ‘काष्ठ’, ‘वृह्द’, ‘दंश’, ‘आम्र’, ‘आश्रय’, ‘अश्रु’, ‘नग्न’, ‘अग्नि’, ‘एकत्र’, ‘तृण’, ‘स्थल’, ‘यमुना’, ‘कार्य’, ‘जिव्हा’, ‘क्षेत्र’, ‘नयन’, ‘नृत्य’, ‘गृद्ध’, और दुग्धहै। इन तत्सम रूपों को हिन्दी या उर्दू वाले कितना प्रयोग कर रहे हैं? इन सवाल पर दोनों के मुख पर ताले जड़ रहे हैं।
   अस्तु! शब्द, ‘मोहब्बतऔर मुहब्बतया महब्बत’, ‘हालातऔर हालातोंया बचपनीकी बहस में उलझे यह विद्वान क्या बतलाने का कष्ट करेंगे कि उर्दू में चट्टानेंका चटानें[इब्राहीम अश्क, पृ. 40] नदीका नद्दी[खालिद किफायत, पृ. 48] खण्डहरका खंडर[राही, पृ. 41] एकका इक[शारिक कैफी,पृ.52] चन्द्रका चाँद[रईस, पृ.48], ‘ऋतुओंका  रुतें[इब्राहीम, पृ. 40], ‘रावणका रावन[अतीक इलाहाबादी, पृ. 40], ‘सिरहानेका सिराने[मुहम्मद अली मौज, पृ. 45] शब्द के रूप में प्रयोग करना किस कोण से उचित है? जबकि यह सर्वविदित है कि ये शब्द तत्सम न होकर या तो तद्भव है या देशज। अरबी-फारसी शब्दों के तत्सम रूप के प्रयोग पर बल देने वालों को हिन्दी के तत्सम रूपों के प्रयोग पर भी बल देना चाहिए। नहीं तो ऐसे निरर्थक विवाद खड़े करने पर भी पूर्ण-विराम लेना चाहिए।
   ‘लफ्ज़के इसी अंक की ग़ज़लों का थोड़ा और अवलोकन करें तो सिरको सर’ ‘सर्पको साँप’, ‘फुल्लको फूल’, ‘दुःखको दुख’, ‘उच्चको ऊँचा’, ‘रहनाको रहियो’, ‘पृष्ठको पीठ’, ‘समुद्रको समन्दर’, ‘अग्निको आग’, ‘पक्षीको पंछी’, ‘सूर्यको सूरज’, ‘आश्रयको आसरा’, ‘हस्तको हाथ’, ‘योगको जोग’, ‘मुखको मुँह’, ‘गौरीको गोरी’, ‘कण्टकको काँटा’, ‘रात्रिको रात’, ‘अधरको अधराबनाकर कविता में प्रयोग करने पर जब हिन्दी और उर्दू वालों में एक मीठी सहमति बन सकती है तो अरबी या फारसी शब्दों के तद्भव या देशज रूप पर असहमति की एक पृथक अँगीठी क्यों सुलगती है? यदि पानीको पानियों[फिराक जलालपुरी, पृ.42] बनाकर बहुवचन का आभास दिया जाना कोई सार्थक कर्म है तो हालातसे हालातोंया बचपनसे बचपनीका निर्माण कैसे अधर्म है? क्या यहाँ भी कोई हिन्दी या मुस्लिम मर्म है? जिसकी साम्प्रदायिकता के बीच सामान्यजन [आम आदमी] की बोलचाल की भाषा का रक्तरंजित होते जाना ही उसकी नियति है। यह कैसा स्थायी भाव रति है, जिसका रस परिपाक विरोधको जन्म देता है। हिन्दी और उर्दू के बीच अवरोध को जन्म देता है।
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001

मो.-9634551630  

Wednesday, April 13, 2016

क्या यही है हिन्दी ग़ज़ल? +रमेशराज



                 रमेशराज
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        क्या यही है हिन्दी ग़ज़ल?

+रमेशराज
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   तेवरी पर आये दिन यह आरोप जड़े जाते रहे हैं कि तेवरी अनपढ़ और गँवारों का आत्मप्रलाप है। अपरिपक्व मस्तिष्कों की उपज है। यह ग़ज़ल की नकल का एक भौंडा नमूना है।यह आरेाप कितने दुराग्रहयुक्त या सार्थक हैं, इसका  निर्णय तो समय ही करेगा। यहाँ सवाल दूसरा है-यदि तेवरी स्टंट या बकवास है तो क्या आज हिन्दी में  लिखी जा रही कथित हिन्दी ग़ज़लें, ग़ज़ल के शास्त्राीय पक्ष और कथ्य का परिपक्व और विलक्षण नमूना प्रस्तुत कर रही हैं ? इसकी जाँच-पड़ताल के लिये तुलसीप्रभाके हिन्दीग़ज़ल विशेषांक, सित-2000 की कुछ ग़ज़लों की थोड़ी बनागी प्रस्तुत है-
   डॉ. अनिल गहलौत हिन्दीग़ज़लके चर्चित हस्ताक्षर हैं। उनका फिलहाल ही एक ग़ज़ल संग्रह ‘ सीप में समन्दर ‘  प्रकाशित हुआ है, जिसमें ग़ज़ल के शास्त्रीय स्वरूप को लेकर बड़ी-बड़ी बातें कही गयी हैं। अपनी गम्भीर बातों को लेकर वे स्वयं कितने गम्भीर है?आइये परखें-
तुलसीप्रभा के ग़ज़ल विशेषांक के पृ.29 पर छपी अपनी प्रथम ग़ज़ल में वे कटा’, ‘अटपटाकी तुक [ काफिया ] बँटासे मिलाते हैं। उनकी दूसरी ग़ज़ल में अनुबन्धकी तुक सम्बन्ध’, ‘प्रतिबन्धऔर तटबन्धसे जुड़ी है। यह काफियों का कैसा नमूना है? क्या इसी तरह हिन्दी ग़ज़ल को ऊँचाइयाँ छूना है? ऐसे में इसी अंक में प्रकाशित श्री प्रदीप कुमार रोशनकी इन पंक्तियों को गुनगुनाने में कुछ ज्यादा ही आनंद आने लगता है-
बड़ी कशमकश में पड़ी है ग़ज़ल
अदब से बिछड़ के खड़ी है ग़ज़ल।
   डॉ. अश्वघोष ने हिन्दी साहित्य में अच्छी-खासी ख्याति अर्जित की है। निस्संदेह वे एक सार्थक रचनाकार हैं, किन्तु पृ.30 पर  प्रकाशित उनकी ग़ज़ल के काफिये का धुआं’ ‘पगडंडियाँ’, खिड़कियाँतय करते हुए बयाँहोता है और सुर्खियाँबन जाता है। यह काफियों का कैसा शास्त्रीय नाता है? ऐसे में इस अंक के सम्पादक श्री प्रेम मंधान के स्वर में ही अपना स्वर सम्मिलित करते हुए, उनकी ही एक ग़ज़ल के शेर के माध्यम से हिन्दी ग़ज़ल के प्रति अपना दृष्टिकोण रखना चाहूँगा-
प्रेम हमारे मतभेदों का कारण बस इतना-सा है
हम कहते हैं ग़ज़ल कही है, वो कहते झक मारी है।
   ग़ज़ल के क्षेत्र में झक मारने की कलामें माहिर हिन्दी ग़ज़लकारों का ग़ज़ल के मूल स्त्रोत, चरित्र [ कथ्य ] और शास्त्रीयता से पिण्ड छुड़ाकर ग़ज़ल कहने का यह हिन्दी अन्दाज अब बह्रों की हत्या कर, हिन्दी छन्दों के साथ प्रस्तुत होने पर आमादा है।  इसमें ग़ज़ल के ग़ज़लपन का एहसास कम, उपहास ज्यादा है।
श्री पुरुषोत्तम यकीन भी हिन्दी ग़ज़ल के एक चर्चित हस्ताक्षर हैं। ग़ज़ल की ग़ज़लियत की हत्या करना कोई इनसे सीखे! इसी विशेषांक के पृ.47 पर उनकी एक दोहा ग़ज़लप्रकाशित है, जिसने हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में छन्दों के नाम के आधार पर ग़ज़ल के अनेक नामकरणों के द्वार खोल दिये हैं और अब लग रहा है कि हिन्दी ग़ज़ल के नाम पर चौपाई ग़ज़ल, गीतिका ग़ज़ल, सोरठा ग़ज़ल, पीयूषवर्ष ग़ज़ल, घनाक्षरी ग़ज़ल, कवित्त और सवैया ग़ज़ल आदि-आदि ग़ज़लें सामने आयेंगी जो ग़ज़ल के क्षेत्र में निस्संदेह एक नया इन्कलाब लायेंगी।
   श्री पुरुषोत्तम यकीन की यह दोहा ग़ज़लप्रथम तो दोहा छन्द का निर्वाह करने में ही असफल है। इसकी दूसरी पंक्ति के प्रथम चरण में जहाँ अल्पविराम लिया जाता है, वहाँ मेरेशब्द का प्रयोग हुआ है, जिसमें दोनों मात्राएँ दीर्घ हैं, जबकि यहाँ लघु के बाद दीर्घ स्वर की व्यवस्था होनी चाहिए। हिन्दी ग़ज़ल के कुछ विद्वान इसे उर्दू वालों की तरह मात्रा या स्वर गिराकर मिरेपढ़ना-लिखना चाहें तो यह पंक्ति मात्रा के अपने ऐब को ढँकने में सफल हो सकती है। हिन्दी ग़ज़ल के होहल्ला के इस दौर में ऐसे विद्वान ऐसा करेंगे भी, एक चतुर सुनार की तरह सोने में पीतल भरेंगे भी, ऐसा विश्वास है। यही तो ग़ज़ल का अनुप्रास है, मधुमास है। इसलिए यकीनजी की इस ग़ज़ल के दूसरे पहलू पर आते हैं। इस ग़ज़ल में के दीपकी पुनरावृत्ति यह कहती है कि यह इस ग़ज़ल का रदीफ है। चलो हम भी माने लेते हैं, किन्तु इसकी दूसरी पंक्ति से केका दीप के आगे से गायब हो जाना यह सिद्ध करता है कि रदीफ का इस ग़ज़ल में सफल निर्वाह नहीं हो पाया है। ग़ज़ल में यह कैसी प्रेत-छाया है? इस कथित ग़ज़ल में काफियों की व्यवस्था क्या है? ‘के दीपरदीफ से पूर्व आखों’, ‘गरीब’, ‘सोने’, ‘खुशियोंऔर ग़ज़लशब्द आये हैं। इन शब्दों के द्वारा कौन-सी उत्कृष्ट, उत्कृष्ट नहीं तो निकृष्ट तुक बनती है? क्या यहाँ भी तुकों की भाँग छनती है? इस भाँग का आनन्द लेते हुए यकीनजीके आखिरी शेर के कथन में आइए हम भी मन लगायें और गुनगुनायें-
आया लुत्फ यकीन जी, सुने करारे शे
दोहे के घर में जले, खूब ग़ज़ल के दीप।’’
   ग़ज़ल की मातमपुर्सी करते हुए ग़ज़ल के दीप जलाने की यह फनकारी आजकल हिन्दी ग़ज़ल वालों के बीच पूरे शबाब पर है, लेकिन ग़ज़ल की सिसकन, सुबकन से हिन्दी ग़ज़लकार बेखबर हैं।
साथी छतारवी अच्छे गीतकार हैं। उनके विषैले गीतसंग्रह की गीतात्मकता असंदिग्ध है। किंतु उनकी ग़ज़ल पर जोर आजमाइश उनके भीतर छुपे कुशल रचनाकार को प्रश्नों के घेरे में खड़ा कर देती है। पृ.85 पर वे डरकी तुक जड़और धड़से मिलाते हैं। उनकी दूसरी ग़ज़ल में ग़ज़लकी तुक शक़लसे अगर ठीक है तो नकल’ ‘सकल’, ‘अकलमें काफिया सिसकता हुआ महसूस होता है और ग़ज़ल की आँख को सजलकर देता है। उन्हीं के शब्दों में ग़ज़ल के प्रति उनकी असमर्थता यूँ व्यक्त होती है-
जैसी आयी, मन में आयी, मित्र ग़ज़ल लिख दी
कभी न देखी-भाली उसकी किन्तु शक़ल लिख दी।
   बिना शक़ल देखे ग़ज़ल लिखने की यह प्रक्रिया, निराकार को साकार में बदलने का उपक्रम है। अतः निराकार का यह साकार रूप अगर हिन्दी ग़ज़ल है तो ऐसी ग़ज़लें, हिन्दी ग़ज़ल को नये आयाम जरूर देंगी, अब न सही आगे चलकर नूर देंगी।
   श्री नूर मोहम्मद नूरने भी हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में खूब नूर बिखेरा है। तुलसी प्रभा के पृ. 80 पर मतला शेर में सदीकी तुक नदीसे मिलाने के बाद वे रोशनीकी खलबलीबड़ी बेदिलीके साथ करते हुए शाइरीका आभास देते हैं। मतला शेर में ही काफिया तंग होने के कारण सब तुकें दलदलीहो जाती हैं। ग़ज़ल के इस दलदल के बीच वे अनायास इस सच्चाई को उजागर कर बैठते हैं-
हारी-हारी ग़ज़ल, कारी-कारी ग़ज़ल
आजकल कहूँ मैं ढेर सारी ग़ज़ल।
तुम सुनो, मत सुनो, ‘नूरको मत गुनो
वह कहेगा मगर उम्र सारी ग़ज़ल।
   पृ. 82 पर डॉ. पांडेय आशुतोष अपनी पहली ग़ज़ल में एकका अभिषेककरते हुए इतनी दिलफैंकतुकों का अभिलेखप्रस्तुत करते हैं कि सम्पूर्ण ग़ज़ल की तुकान्त व्यवस्था खस्ता बन जाती है। दूसरी ग़ज़ल में मतला शेर गायब है, पर यह हिन्दी ग़ज़ल है इसलिए सफल है? इस ग़ज़ल में वंचनाकी तुकें चना’, ‘याचना’, ‘आलोचना’, कुल मिलाकर चना’, घना प्रकाश फैलाने के स्थान पर, अंधकार ही अन्धकार फैलाती हैं। ग़ज़ल के नाम पर ग़ज़ल के काफियों को खाती है।
   ग़ज़ल के प्रखर व्याख्याता श्री अनिरुद्ध सिन्हा की पृ. 31 पर प्रकाशित दूसरी ग़ज़ल के छः काफियों में शामऔर कामको छोड़कर नामकाफिया चार बार आया है। काफिया के रूप में नामकी यह तुक क्या स्वर परिवर्तन का सही आधार खड़ा कर सकती है? यह उनके ही लेख ग़ज़ल की समझ के विरोधको कैसे दबा सकती है? उसे बस बड़ा कर सकती है।
   डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल हिन्दी ग़ज़ल के चर्चित हस्ताक्षर ही नहीं, ग़ज़ल के एक अच्छे प्रवर्त्तक और उद्घोषक हैं। ग़ज़ल की हिन्दी में चर्चा कराने का श्रेय भी काफी हद तक उनके हिस्से में हैं। लेकिन पृ.76 पर प्रकाशित उनकी दूसरी ग़ज़ल के मतला में चाँदनीकी तुक रोशनीसे मिलने के बाद आगे चलकर आदमी’, और नदीकी फुलझड़ीबन जाती है। यह ग़ज़ल इस प्रकार सुबकते हुए काफियों के बीच हिन्दी ग़ज़लकहलाती है।
   पृ. 56 पर रसल विश्वामित्र हिन्दी ग़ज़ल से रदीफगायब कर ग़ज़ल को एक नया आयाम देते हैं। रदीफसे मुक्ति का यह प्रयास आगे चलकर हिन्दी ग़ज़ल की शास्त्रीयता का शायद कोई मान बन जाये, पहचान बन जाये तो आश्चर्य कैसा? हिन्दी ग़ज़ल में होता है ऐसा। जि़न्दगीसे आशिकी’, ‘रोशनी’, ‘आदमी’, ‘रागनीआदि शायरीके लिये अनुकूल तुकें हो सकती हैं, लेकिन ग़ज़ल में रदीफ के बिना इनका औचित्य समझ से परे है। संयुक्त रदीफ- काफिये की यह ग़ज़ल कैसा कमाल करे है?
   पृ. 51 पर ग़ज़ल के महारथी श्री महेश अनघ विराजमान हैं। उनकी ग़ज़लों की तुकें उत्कृष्ट हैं। लेकिन प्रथम ग़ज़ल कौन-सी बह्र में कही गयी है? इसकी हर पंक्ति मात्रादोष और लय-भंगता की शिकार है। हिन्दी ग़ज़ल का यह कैसा चमत्कार है। मूँगफलियाँ खा चुकने के बाद जन गण मनसुनने का कथन प्रभावशाली है-मौलिक है। परेशानी बस यह इक है-
यह दौरे-ग़ज़ल है नरेद्र, दौरे-ग़ज़ल में
बेवज्न तवाजुन की बह्र देखते चलो।
   ‘आजकलमासिक के मार्च-2000 अंक में श्री आलम खुरशीद की दूसरी ग़ज़ल के काफिये बरसते’ ‘तरसते’ ‘दस्ते’, ‘गुलदस्तेसे मिलाये गये हैं। ये कैसे निभाये गये हैं?
इसी अंक में ग़ज़ल के विद्वान कवि ज्ञानप्रकाश विवेक की पृ. 24 पर दूसरी ग़ज़ल में तरसे करकी तुक पांच बार मिलायी गयी है। क्या ग़ज़ल में शुद्ध काफियों का निर्वाह हुआ है? विवेकजी ने इस ग़ज़ल में कौन-सी तकनीकी को छुआ है?
   सार यह है कि बेवज़्न बह्रों, मतला के अभावों, काफियों के अशुद्ध प्रयोगों, रदीफों या काफियों का ग़ज़लों से गायब हो जाना, मक्ता से मुक्ति, बह्रों के स्थान पर हिन्दी के छन्दों की त्रुटिपूर्ण घुसपैंठों अर्थात् ग़ज़ल के शिल्प की हत्या कर, मरी हुई ग़ज़ल को ओजस्-प्राणवान बतलाना, अपने इस कर्म पर मंत्रमुग्ध होते हुए तेवरीकारों को गरियाना, उन्हें पाकिस्तानी, खालिस्तानी, हरिगढ़ी या हरिपुरी बतलाना, अगर हिन्दी ग़ज़लकारों की यही समझदारी है तो यह निस्संदेह मानसिक बीमारी है, तेवरी के खिलाफ आँख मूँदकर बयान देने की तैयारी है।
   हिन्दी ग़ज़लकारों ने सिर्फ ग़ज़ल के ही शिल्प की हत्या की हो और यहीं अपनी यह शिल्प-क्रिया रोक ली हो, ऐसा नहीं। ये ग़ज़ल की आत्मा [ कथ्य ] पर भी लगातार चोट कर रहे हैं। मूल चरित्र की हत्या करने में इन्हें आनंद का अनुभव हो रहा है। श्री अनुरुद्ध सिन्हा अपने ग़ज़ल की समझ का विरोधआलेख में फरमाते हैं कि ‘‘ मैं मानता हूँ कि ग़ज़ल हुस्नो-इश्क से ताल्लुक रखती है। यह इसका अपना सौन्दर्यबोध है, साथ ही जीवन का एक अहम् पक्ष भी। मगर दूसरी ओर जीवन का कटुपक्ष भी इसके हिस्से में आता है।’’
   मतलब यह कि अब ग़ज़ल प्रणयात्मकता के साथ-साथ समकालीन विकृतियों, विसंगतियों और शोषण के प्रति आक्रामकता का आभास भी देती है। श्री अनिरुद्ध सिन्हा या उन जैसे ग़ज़ल के समझदारों की दृष्टि में ऐसे तर्क इसलिये सही हैं क्योंकि इनके लिये सूपनखा और सीता में कोई फर्क नहीं है, हैं तो दोनों स्त्रिायाँ ही। ऐसे विद्वानों के हिसाब से तो किसी की पत्नी किसी गैरमर्द के साथ बार-बार सो सकती है। वह तो पत्नीही कहलायेगी, ‘रखैलकैसे हो जायेगी? ऐसे विद्वान, सचिवालय, विद्यालय, मदिरालय, पुस्तकालय और वैश्यालय के अन्तर को आखिर समझने की कोशिश करें तो क्यों करें, आखिर हैं तो सब ये आलयही। माँ, भाभी, बुआ, दादी, चाची, मौसी, बहिन, बेटी कहकर ऐसे सुधी  लोग स्त्री के व्यक्तित्व को खण्डित करने का प्रयास क्यों करें? स्त्री अन्ततः स्त्री ही है। गुण्डे और शरीफ, अध्यापक और विद्यार्थी, शासक और शासित, भोगी और योगी में ये विद्वान भेद मानें तो क्यों मानें? ये सब भी तो आदमीके ही रूप हैं। इनकी दृष्टि में यदि कोई हत्यारादुधारा त्यागकर बुद्धबना है तो उसे शुद्ध मानकर विवाद को क्यों बढ़ायें। अतः उसे हत्यारा ही बतायें, क्योंकि था तो हत्यारा, क्या हुआ जो त्याग दी दुधारा?
   ग़ज़ल के पाँवों से घुँघरू छीनकर, लबों से शराब का स्वाद हटाकर, उसके हाथों में क्रान्ति की मशाल और तलवार थमाने वाले हिन्दी ग़ज़ल के समझदारों को इतना तो बताना ही चाहिए कि सहवास के चुम्बनऔर बलात्कार के क्रन्दनमें क्या कोई फर्क नहीं होता? अगर नहीं तो ग़ज़ल की हू--हू टैक्निक में रची गयी हज़्ल’, ग़ज़ल से अलग कैसे हो गयी? ‘प्रेमपूर्ण बातचीत की शालीनताऔर अश्लीलताएक ही फार्म में ग़ज़लऔर हज़्लको मान्यता प्रदान करने वाले विद्वान क्या मानसिक रूप से विक्षप्त थे?
   उक्त बातों, तथ्यों या चरित्र की सही पहचान को ध्यान में रखते हुए ही यदि तेवरीकारों ने तेवरी को ग़ज़ल से अलग किया तो यह अलीगढ़ को हरीगढ़ बनाने की साजिश कैसे हुई? इसके लिये क्या कोई सतर्क तथ्य सामने नहीं आना चाहिए? तेवरी से ग़ज़ल को अलग करने की यह मंशा अगर कोई साजिश मानी जायेगी या मानी जा रही है तो ऐसी ही साजिश की दुर्गन्ध इन ग़ज़ल-भक्तों को आरती और वंदना, नाटक और एकांकी, ‘चुटकुला और लघुकथा, उलटबाँसी और बारहमासी, दोहा और साखी, खण्ड काव्य और महाकाव्य के साथ-साथ प्रेम और वासना आदि में अन्तर करने वाले अभिप्रायों में भी आयेगी, लेकिन यहाँ वे चुप ही रहेंगे, बस तेवरीकारों को ही साजिशी कहेंगे।
   चुम्बन और बलात्कार के क्रन्दन को एक ही आत्मा के खाने में ठूँसकर ग़ज़ल को परम-आत्माका स्वरूप प्रदान करने वाले ये ग़ज़लकार अगर शराब के स्थान पर ग़ज़ल के हिस्से में यातना, बेबसी, लाचारी, तल्खी को लाते हैं और इस तरह ग़ज़ल के कथन चाकू की तरह तन जाते हैं, लेकिन यह आक्रोश, विरोध, विद्रोह और असंतोष की अनुभावमय शक़ल फिर भी ग़ज़ल कहलाती है तो ऐसे ग़ज़ल के परमात्माओं के समक्ष अनुनय-विनय का अर्थ और असमर्थ ही होना है। फिर  भी निवेदन के साथ कुछ बात-अगर ग़ज़ल के हिस्से में प्रणात्मकता के साथ-साथ आक्रामकता भी आती है तो क्या भजन के हिस्से में नेताजी के चमचों के व्याख्यान भी आ सकते हैं? क्या विनय, अग्निलय बनकर विनयका ही परिचय दे सकती है? वन्दना के हिस्से में क्या उल्लू निन्दा आ सकती है?
   उक्त सारी दलीलों को ग़ज़ल के कथ्य के परिवर्तन की तर्जपर क्या ग़ज़ल के कथित पंडित अपने गले उतार सकते हैं? ग़ज़ल जैसा अलौकिक कारनामा [ जिसमें चरित्र तो बदला हो लेकिन नाम नहीं ] ग़ज़ल को छोड़, कहीं और गिना सकते हैं? क्या वे हज़्ल को ग़ज़ल बता सकते हैं? श्री रतीलाल शाहीन [ आजकल मार्च-2000 ] तेवरी की सार्थकता को खारिज करते हुए कहते हैं कि-‘‘नाम बदल लेने से गुण या स्वभाव नहीं बदल जाता।.....ग़ज़ल का तेवरी नाम ऐसा ही लगता है जैसे अलीगढ़ को कोई हरिपुर कहे।’’
   अलीगढ़ को हरिपुर में बदलने के पीछे जो साम्प्रदायिक दुर्गन्ध छुपी हुई है, उसे शाहीनजी नहीं महसूसते तो इसमें तेवरीकारों का क्या दोष? अगर इस दुर्गन्ध को वे तेवरीकारों के मत्थे मढ़ना चाहते हैं तो ग़ज़ल को हिन्दी ग़ज़ल बनाने वाले ग़ज़लकार पहले अपने अन्दर की साम्प्रदायिक दुर्गन्ध को महसूस करें। दूसरों की आँख में टेंट देखने से पहले इस प्रश्न का उत्तर दें- ‘माना नाम बदलने से गुण या स्वभाव नहीं बदल जाता, पर गुण या स्वभाव बदलें तो... और कुछ हो न हो ग़ज़ल कैसे हज़्ल हो जाती है?
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001

मो.-9634551630