‘ग़ज़ल’
बनी अब ‘गजल’
-रमेशराज
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कुछ मौलिक प्रयोगों और विलक्षण कथन-संयोगों के
कारण ग़ज़ल को लेकर दुष्यंत कुमार का नाम हिन्दी साहित्य में क्या उछला कि हिन्दी
के अधिकतर गीतकार, कहानीकार,
लघुकथाकार, उपन्यासकार,
चुटकुलेबाज, मुक्तछंद
के मकरंद यहाँ तक कि आलोचक और समीक्षक अपने मूल सृजन को छोड़कर खुद को दुष्यंत
जैसा ग़ज़लकार बनाने और ग़ज़ल को भुनाने में ऐसे जुट गये,
जैसे महाभोज के लिए गिद्ध जुटते हैं।
ग़ज़ल के शास्त्रीय सरोकारों,
उसके मूल अर्थ को न समझने वाले विद्वानों ने
ग़ज़लपन की सारी विशेषताओं को व्यर्थ सिद्ध ही नहीं किया बल्कि ग़ज़ल के नियमों से
छूट की लूट को तैयार हुए ये रँगरूट ग़ज़ल-सृजन के नाम पर ग़ज़ल का कीमा कूटने लगे
और इस कुटी-पिसी-मसली ग़ज़ल को इन्होंने ‘हिन्दी
ग़ज़ल’ कहा।
‘ग़ज़ल’
को ‘हिन्दी
ग़ज़ल’ बनाने वालों ने तर्क दिये
कि ‘‘ये फैलुन-फैलुन’
क्या होता है? जो
चीज हमारे व्याकरण के अनुकूल है ही नहीं, उस
पर व्यर्थ की माथपच्ची क्यों करें, आओ
ग़ज़ल में हिंदी-छंदों का ओज भरें।’’ कोई
बोला-‘‘ग़ज़ल कहने के लिये ‘मतला-मक्ता’
के प्रयोग हमारी दृष्टि में एक रोग के सूचक हैं,
इसलिये ग़ज़ल से ‘मक्ता-मतला’
हटाओ और इस तरह एक स्वस्थ हिन्दी ग़ज़ल बनाओ।’’
किसी ने फरमाया-‘‘ग़ज़ल
पर उर्दू की छाया है। चूंकि हमने इस विदेशी विधा को हिन्दी में अपनाया है अतः
हिन्दी के तत्सम शब्दों का प्रयोग करो। हिन्दी ग़ज़ल लिखनी है तो अरबी-फारसी
शब्दावली की हर कली तोड़नी ही पड़ेगी। ग़ज़ल हमें भारतीय संस्कारों से जोड़नी ही
पड़ेगी।’’ किसी ने सुझाया-‘‘ग़ज़ल
अगर गीत के निकट आती है तो आने दो।’’ किसी
ने कहा -‘‘एक ‘मुसलसल
ग़ज़ल’ भी तो होती है,
जो ग़ज़ल की ही पोती है। हम हिन्दी वाले इसी ‘रोती-सी
पोती ग़ज़ल’ के रूप
को अपनाकर हिन्दी साहित्य को महिमामंडित करेंगे।’’ किसी
ने कहा-‘‘ग़ज़ल’
में हम ‘इक
काफिया ग़ज़ल’ का रूप
अपनाएंगे और ईलू-ईलू गायेंगे। ग़जल, ग़ज़ल
के मापदंडों पर खरी उतरे, न उतरे
इसे ‘हिन्दी ग़ज़ल’
बताएँगे।’’
ये बातें तब की हैं,
जब ‘गजल
गरिमा’ नामक पत्रिका का आगमन
हिन्दी में नहीं हुआ था। इस पत्रिका के माध्यम से अब हिन्दी में ग़ज़ल के नाम पर
कई और अजूब हो गये हैं। ग़ज़ल के नीचे के दो अधोबिन्दु अर्थात् नुक्ते कहीं खो गये
हैं। ग़ज़ल की नुक्तेविहीन इस नंगी शक़्ल पर हिन्दी के ‘ग़ज़लकार’
हीं नहीं, ‘गजलकार’
भी रीझ रहे हैं और उर्दू वालों पर इस प्रकार खीज
रहे हैं-‘‘ उर्दू
गजलविद यदि हिन्दी गजलकार को खारिज करते हैं तो करने दीजिए। हम क्यों अपने सृजन पर
उनका ठप्पा लगवाना चाहते हैं? उनके
तो बाँट ही अलग हैं। वे अपने बाँटों से हमें क्या तोलेंगे।’’
[
डॉ. सेन, गजल गरिमा,
जन-मार्च-12, पृ.15
]
‘ओढ़
लयी लोई तौ का करैगौ कोई’ या‘
मान न मान मैं तेरा मेहमान’
जैसी गर्वोक्ति केवल निर्लज्जता की ही परिचायक नहीं
है बल्कि ‘ग़ज़ल की
समझ की दीनता’ को भी प्रकट करती है। ‘ग़ज़ल’,
ग़ और ज़ के नीचे लगे नुक्तों के साथ ही अपने
शाब्दिक अर्थ को उजागर करने में सामर्थ्यवान है। इन नुक्तों को हटा देने के बाद
उसका शरीर ही नहीं, उसकी
आत्मा भी परलोकवासी हो जाती है। इस खतरे को भाँपते हुए ग़ज़लकार मधुर नज़्मी
चेतावनी-भरे स्वर में कहते हैं-‘‘
ग़ज़ल को अति भाषायी उत्साह में ‘गजल’
बनाया जाना कुछ-कुछ वैधानिक अपराध करने जैसा महसूस
होता है। अधिसंख्य गीतकार नवगीत का अपना खेमा छोड़कर ‘हिन्दीग़ज़ल’
को ‘नागरी
गजल’ बनाने पर तुले हुए हैं।
हिन्दी ग़ज़ल नाम न जाने क्यों अब उन्हें नहीं खप रहा है। एक मुहिम,
एक साजि़श ग़ज़ल से मुखातिब है। अच्छा है,
फिलहाल हिन्दी ग़ज़ल में कोई खलीफा नहीं है।’’
[गजल
गरिमा-3, पृ.-4]
श्री विपिन सुनेजा शायक ने चेताया-‘‘ग़ज़ल
[नुक्ता सहितद्]
शब्द के नीचे नुक्ते न लगे देखकर निराशा हुई।... ‘गजल’
कहने का हठ न करें। यदि ऐसा ही चलता रहा तो आने
वाले कवि इसे ‘गजलिया’
बनाकर रख देंगे।’’ [गजल
गरिमा-3, पृ.31]
पद्मश्री गोपालदास ‘नीरज’
ने ‘गजल’
शब्द पर चुटकी लेते हुए कहा-‘‘
आजकल ग़ज़ल पर रोज एक नयी पत्रिका प्राप्त हो रही
है। लगता है सभी गीतकार और पत्रकार ग़ज़ल के पीछे पड़ गये हैं,
इसलिए ग़ज़ल के नाम पर बहुत-कुछ कूड़ा-करकट इकट्ठा
हो रहा है। [गजल
गरिमा-3 पृ.29]
श्री मधुसूदन साहा ने इन नव गजलकारों को सुझाव
दिया-‘‘गजल’
शब्द के नीचे नुक्ता दें,
नहीं तो ग़ज़लधर्मी लोग आपकी नुक्ताचीनी करेंगे।’’
ग़ज़ल को गजल बनाकर इठलाती-मदमाती,
मस्ताती जमात को ऐसे सुझाव बेकार और बेजान इसलिए
लगे क्योंकि इनका मानना है-‘‘दुन्या [दुनिया],
खतूत [खतों],
आवारः [अवारा],
परिन्दः [परिन्दा],
एहसास [अहसास],
मज्हब [मजहब]
आदि ऐसे कितने ही शब्द हैं जिन्हें मूल रूप में हिन्दी भाषा के स्वाभावनुसार लिखा
व बोला जाता है। आपका ध्यान शायद इस तथ्य की ओर नहीं गया कि किसी भी उर्दू शब्द के
नीचे नुक्ता की प्रयुक्ति नहीं की गयी है, क्यों?
क्योंकि हिन्दी भाषा में उसका अर्थ नहीं बदलता।
...अच्छा हो आप ‘हिन्दी
गजल’ को हिंदी या हिन्दी के
निकट रहने दें। [भानुमित्र,
सं-गजल गरिमा-3 पृ.30]
भानुमित्रजी की उपरोक्त टिप्पणी से उनके अल्पज्ञान
की जानकारी तो इसी से मिल जाती है कि वे जिन शब्दों को ‘उर्दू-शब्द’
कहते हैं वे उर्दू के न होकर या तो अरबी के हैं या
फारसी के। चूँकि उर्दू कोई भाषा है ही नहीं, बल्कि
हिन्दी की खड़ी बोली का एक रूप है, जिसमें
एक भी उर्दू का शब्द नहीं है। सोचने की बात यह भी है कि कथित उर्दू में सर्वनाम,
काल सूचक सहायक क्रियाएँ,
मुख्य क्रियाएँ हिन्दी की हैं,
अर्थात् व्याकरण हिन्दी का और कुछ शब्द अरबी-फारसी
के, लिपि भी उसकी अपनी नहीं।
ऐसी बोली को भाषा कहना ठीक उसी तरह है जैसे लोग सम्प्रदाय को धर्म समझते हैं। यह
समझ अपरिपक्व, अपूर्ण और
अज्ञानता से भरी है। इसी अज्ञानता के सहारे चलते हुए श्री भानुमित्र हिन्दी भाषा
के स्वभावानुसार अरबी-फारसी के शब्दों को पता नहीं कैसे हिन्दी में लिख या बोल
लेते हैं, वह भी
उनके मूल रूप में? जहाँ तक
कथित उर्दू-शब्दों के नीचे नुक्ता-प्रयुक्ति का सवाल है तो उन्होंने अपनी टिप्पणी
में अरबी-फारसी के ऐसे शब्दों के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जो तत्सम से तद्भव रूप
में प्रयुक्त होने पर अर्थ का अनर्थ नहीं करते। उन्होंने ‘दुन्या’
से ‘दुनिया’,
‘खतूत’ से
‘खतों’,
‘नस्ल’ से
‘नसल’,
‘फस्ल’ से
‘फसल’,
‘इंतिजार’ से
‘इन्तजार’,
‘शम्अ’ से
‘शमा’,
‘चराग’ से
‘चिराग’,
‘मस्अलः’ से
‘मामला’,
‘एहसास’ से
‘अहसास’,
‘मज्हब’ से
‘मजहब’
आदि शब्दों के आम प्रयोग में प्रचलित रूपों के
उदाहरणों में बड़ी ही चालाकी बरती है ताकि नुक्ते के प्रयोग को निरर्थक सिद्ध किया
जा सके। नुक्ते की सार्थकता को सिद्ध करने वाले अगर कुछ शब्द उन्होंने अपने
उदाहरणों में ले लिये होते तो उनकी उपरोक्त टिप्पणी पूरी तरह धराशायी हो जाती।
ध्यान देने की बात यह कि ‘ज़माना’
शब्द से यदि प्रयुक्त अधोबिन्दु हटा दिया जाये तो
इसका अर्थ ‘संसार’
के स्थान पर किसी ‘वस्तु
को स्थिर करना या स्थापित करना’ हो
जाता है। ‘ख़ाना’
शब्द को नुक्ताविहीन कर देने पर यह शब्द ‘घर’
के स्थान पर ‘भोजन’
को ध्वनित करने लगता है। ‘ज़ीना’
शब्द से अधोबिन्दु हटने के बाद यह शब्द ‘सीढ़ी’
का अर्थ खोकर ‘जीवन’
का पर्याय बन जाता है। जबकि तर्क की बात यह है
कि नुक्तायुक्त ‘तर्क़’
‘त्यागने’ का
प्रतीक है। क्या इसी तरह राज़ को राज कहना ठीक है। जो लोग फ़न [कला] और ‘फन’
[साँप की फैली हुई मुखाकृति] के भेद से अन्जान हैं,
वही ग़ज़ल को गजल बना रहे हैं और अपने इस कर्म को
सुकर्म बता रहे हैं।
शब्द ‘ज़माना’
और ‘जमाना’,
‘राज और ‘राज़’
‘खाना और खा़ना’ ‘गुल’
और ‘ग़ुल’,
‘ज़ीना’ और
‘जीना’
आदि में भेद मिटाकर हिन्दी या उसके साहित्य को
समृद्धिशाली, वैभवपूर्ण
और दिव्य बनाने वाले ऐसे हिन्दी गजलकार भाषा के बिगड़े रूप पर सवार होकर अपनी नैया
ठीक उसी तरह पार लगाना चाहते हैं जैसे अल्पशिक्षित आम आदमी ‘आशीर्वाद’
को ‘आर्शीवाद’, ‘फालतू’
को ‘बेफालतू’
‘शृंगार’ को
‘श्रृंगार’
‘कृपया’ को
‘कृप्या’,
‘अन्यायी’ को
‘अन्जायी’,
‘हल्दी’ को
‘हद्दी’,
‘मिर्च’ को
‘मिच्च’,
‘जाती है’ को
‘जाति है’
आदि-आदि लिख-बोलकर संदर्भ के अनुसार अर्थ भी ग्रहण
करता है और अपनी बात भी कहता है। क्या भाषा का यह शाब्दिक रूप सही है?
आम आदमी ने क्षेत्रविशेष के आधार पर अपनी
सुविधानुसार शब्दों की जो तोड़-मरोड़ की है, यह
उसके लिये सरल और भली है किंतु क्या इसी रूप को मानक रूप मानकर पाठशालाओं में
पढ़ाया जाना चाहिए? क्या यही
रूप ‘हिन्दी गजल’
में नहीं आना चाहिए? बहुत
सम्भव है आगे चलकर यह हिन्दी गजलकार इस रूप पर भी गम्भीरता से विचार करें और
हिन्दी गजल में नया ओज भरें।
जब अज्ञानता, अतिज्ञान
का दम्भ भरती है तो भाषा के पेट में एक छुरी उतरती है। व्याकरण में एक नहीं अनेक
छेद करती है। साझा तहजीब का गला रेतती है। उड़ान भरते शब्दों के पंख कतरती है। इस
तरह शब्दों को अर्थवत्ता मरती है। भाषा के बीच उसकी अर्थ की लय सड़ती है। दुनिया
ऐसी बातों को सुनने के बजाय नाक पर रूमाल रखकर तेजी के साथ आगे बढ़ती है। ऐसी
बातों से चिढ़ती है। किन्तु ऐसे वातावरण से अन्जान कुछ महान विद्वान अपने
व्याख्यान फिर भी जारी रखते हैं। ग़ज़ल भी अब ऐसे हिन्दी के पंडितों के कारण छूत
के रोग की शिकार होती जा रही है। ये नासमझ चिकित्सक हैं कि इसमें लगातार सुधार की
बातें कर रहे हैं। ग़ज़ल के खोखले शरीर में घास-फूँस भर रहे हैं।
नुक्ते का शब्द के साथ सही प्रयोग शब्द को
सार्थकता प्रदान करता है, लेकिन
मति के मारे हमारे हिन्दी गजलकार हमें यह समझा रहे है-‘‘हिन्दी
की वर्णमाला में नुक्ता कहां है? हम
वाक्य के संदर्भ में इसका अर्थ समझ लेते हैं। हमारे लिये तो ‘राज़’
और ‘राज’
समान हैं। हम वाक्य के संदर्भ में इसका अर्थ समझ
लेते हैं। ‘कल’
आने वाला है या बीता हुआ है,
इसे हम संदर्भ के अनुसार समझ लेते हैं। गजल अगर
हिन्दुस्तानी है तो इसकी शब्दावली भी हिन्दुस्तानी ही होनी चाहिए।... हिन्दी गजल
के लिये जो शब्दावली ईजाद हुई है, वह
भले ही अभी प्राथमिक पाठशालाओं में न
पढ़ायी जाती हो, लेकिन
हिन्दीगजल के लिये उपयुक्त भाषा यही है।’’
[
डॉ. माया, गजल
गरिमा, जन-मार्च-12,
पृ.12]
जिनके लिये ‘राज’
और ‘राज़’
में कोई फर्क नहीं है,
ऐसे विद्वानों का ग़ज़ल से नुक्ते हटाना और उसे गजल
बनाना ठीक उसी तरह है जैसे रॉड और बल्ब को दीपक बताना। इन अति ज्ञानवानों को कौन
समझाये कि दो बार ‘हा’
लिख देने को ‘दोहा’
कहा जा सकता है, लेकिन
इसमें दोहा जैसे क्या होता है? लघुकथा
और लघुकहानी, नाटक और
एकांकी, कविता और काव्य का फर्क
ऐसे लोगों की शायद ही समझ में आये। वाक्य के संदर्भ के अनुसार शब्द के अर्थ को समझ
लेने का दम्भ भरने वाले ये हिन्दी साहित्य के नये स्तम्भ अपने तथ्यों का चाहे जैसे
कर लें आरम्भ और चाहे जैसे उसका अंत, किन्तु
रहेगा यही सवाल जीवंत कि-हिन्दी गजल के लिये ऐसी कौन-सी शब्दावली ईजाद की जा रही
है, जो पाठशालाओं में नहीं
पढ़ायी जा रही है। प्राथमिक पाठशालाओं में तो आज अंग्रेजी का बोलबाला है। यह
विद्वान बतायें, ‘हिन्दी
गजल’ की उपयुक्त भाषा [अगर ईजाद
की है] को ये कौन-सी पाठशालाओं में ले जायेंगे, जहाँ
ये बतायेंगे कि हिन्दी में ग़ज़ल नहीं, ‘गजल’
उच्चारण सही है। क्या इसके लिये इस नयी ‘गजल’
की पाठशालाएँ खुलवायेंगे?
गजल [ग़ज़ल नहीं] अगर हिन्दुस्तानी है तो क्या
हिन्दुस्तान में मुसलमान, सिख,
ईसाई नहीं रहते? क्या
हिन्दुस्तान सिर्फ हिन्दुओं का देश है? ये
हिन्दुस्तान का कैसा परिवेश है जिसमें बाल ठाकरे, राज
ठाकरे बनकर रहना साहित्यकार की भी मजबूरी बनता जा रहा है। इस नये ‘गजल
के बम’ से साहित्य की साझा विरासत
को तो ध्वस्त किया जा सकता है लेकिन पूरे हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरोने का
काम नहीं किया जा सकता है। अतः बात सिर्फ ग़ज़ल से नुक्ते नोचकर फैंकने की नहीं है,
यह तो अलगाव को घाव देकर एक अलग चूल्हा बनाकर अपनी
अलग रोटी सेंकने की है।
अगर ‘कल’
किसी राजा का नाम हो और श्रोता इस नाम को न जानता
हो और कोई कवि उसके समक्ष केवल यह कविता की पंक्ति पढ़े कि ‘कल
राजा को निश्चित मारूँ कसम श्याम ने खायी है।’ इस
पंक्ति को सुनने के बाद क्या ‘गजल’
के ऐसे विद्वान संदर्भ के अनुसार ‘कल’
का वास्तविक अर्थ समझ लेंगे?
अगर पुराना मिथक नायक ‘अलादीन’
चराग़ रगड़कर ‘जिन’
को प्रकट कराने के बाद यह कहे कि-‘‘बत्ती
को गुल कर दो।’’ सही अर्थ
को न समझ पाने वाला ‘जिन’
ऐसे में यदि बत्ती को गुल अर्थात् फूल बना दे तो
संदर्भ के अनुसार यह शब्दार्थ की सही पकड़ होगी? क्या
मिथक नायक को बत्ती बुझवाने के लिये जिन
से अपरोक्त वाक्य ऐसे नहीं कहना चाहिए कि-‘‘ बत्ती
को ग़ुल कर दो’। वाक्य-‘ज़िन्दगी
भर को जमाना सीख ले’ से क्या
सही संदर्भ की समझ सही अर्थ को स्पष्ट करती है। ‘जमाना’
शब्द यहाँ जमाने [स्थापित करने] या ज़माने [संसार]
में से किस संदर्भ में ग्रहण किया जायेगा? क्या
यह संदेह या दुहरी आशंका या द्विविधा को नहीं जगायेगा?
‘आपका राज केवल आज’ वाक्य
में ‘राज’
रहस्य के अर्थ को उजागर करेगा या किसी के एक दिन के
शासन को? क्या यहाँ राज्य के लिये ‘राज’
और रहस्य के लिय ‘राज़’
का प्रयोग आवश्यक नहीं है। मान लो कोई कह रहा है
कि-‘‘क्या जीना इसी को कहते है’?
इस वाक्य से ‘जीना’
[जीनायापन करना] स्पष्ट होता है या ‘सीढ़ी’
का बिम्ब उभरता है? अपनी-अपनी
समझ और भ्रामक संदर्भ को ग्रहण कर कोई ‘जीना’
का अर्थ सीढ़ी से लेगा,
तो कोई जीने के प्रकार से। जबकि वाक्य यदि यों हो
कि-‘क्या ज़ीना इसी को कहते है’
तो हर व्यक्ति इस जीने का अर्थ सीढ़ी से ही
लगायेगा।
कहने का अर्थ यह है कि नुक्ते की शब्द के सही
स्थान पर प्रयुक्ति किसी भी प्रकार के अर्थ के संदेह से मुक्ति दिलाती और उस शब्द के सही अर्थ तक ले जाती है। अतः
नुक्ते के प्रयोग को व्यर्थ सिद्ध करने वालों के कुतर्क हर किसी को अशुद्ध अर्थ के
अंधे नर्क में डालने के अतिरक्त कोई अन्य
समाधान प्रस्तुत नहीं करेंगे। इसलिये नुक्तेयुक्त शब्द नुक्ताविहीन होकर सही अर्थ
के संदर्भ में बेमौत मरेंगे।
अगर केवल, ‘‘ड’
और ‘ढ’
पर ही आवश्यकतानुसार अधोबिन्दु विधान व परम्परा
हिन्दी में मान्य है और अन्य किसी शब्द के नीचे बिन्दु लगाना हिन्दी के सम्मान के
विरुद्ध है [सार्थ, गजल
गरिमा-2, पृ.31] तो ‘साॅनेट’
और ‘डाॅक्टर’
शब्द पर आये अर्ध चन्द्राकार चिन्ह को ये हिन्दी
गजलकार क्यों नहीं हटाते। ‘शे’र’
को ‘शेर’
की तरह क्यों नहीं लिखते?
क्या इन प्रयोगों से हिन्दी के सम्मान में
श्रीवृद्धि होती है क्योंकि हिन्दी ग़जल के इन्ही नारदों का यह भी कहना है-‘
हिन्दी शब्द गजल तो हो सकता है,
ग़ज़ल नहीं।... कुछ अधिक पढ़ों ने या अपनी विदेशी
पहचान दिखाने के लिये ‘डाॅक्टर’,‘जैट’
को ‘जॅट’
जैसे अतिरिक्त चिन्ह लगाकर हिन्दी के गले में पत्थर
बाँध दिये हैं। [डाॅ. ओम प्रकाश ‘अराज’,
गजल गरिमा-2, पृ.30]
‘तैयारी’
को ‘तयारी’
‘गुंजायमान’ को
‘गुंजान’,
‘रूमाल’ को
‘रुमाल’,
‘छँट’ को
‘छट’,
‘बेहतर’ को
‘बहतर’,
‘सनकी हो जाते हैं’ को
‘सनकते’,
‘रास्ते’ को
‘रासते’,
‘हरेक’ को
‘हरिक’,
‘हेतु’ को
‘हेतू’,
‘आकाश’ को
‘आकास’,
‘खामोशी’ को
‘खमुशी’,
‘लहूलुहान’ को
‘लोहूलुहान’
बनाकर हिन्दी गजल में प्रयोग कर देने-भर से यदि
हिन्दी में चमक आ जाती है और आतंकवाद, अलगाववाद
के राक्षसों को इस प्रकार के उत्पन्न हुए दैवीय गुणों से मारा जा सकता है या गजल
में एक नया मुहावरा उभारा जा सकता है, भाषायी
भिन्नता को भुलाया जा सकता है या हिन्दी के मुट्ठीभर हिंदीगजल के विरोधी आलोचकों
को इस नयी गजल का शिल्प आसानी से समझाया जा सकता है,
प्राथमिक पाठशालाओं में इसे पढ़ाया जा सकता है।
हिन्दीनुमा उर्दू लिपि क्या होती है, इसे
समझाया जा सकता है तो मानना ही पड़ेगा कि भानुमित्र और उनके कुनबे का ‘हाँ-हाँ’
की रट लगाता गजलकार ‘गजल
गरिमा’ की लालिमा को एक अनूठे
प्रभामंडल में बाँधकर ही मानेगा। आलोचकों की व्यंग्य-बौछार से बचने के लिये नये
तर्को ढालें को तानेगा।
अगर ऐसा नहीं है तो हिन्दी के इन नव गजलकारों
को भाषा की दुर्गति को पुष्ट करने में कुछ तो लज्जा का अनुभव होना चाहिए। ‘रीत’
से ‘प्रीति’
की तुक ‘प्रीत’
के रूप में निभाते समय कुछ तो भयभीत होना चाहिए। ‘लगे’,
‘उठे’ की
तुक ‘दिखें’,
‘यामिनी’ की
तुक ‘चाँदनी’
अथवा ‘मन’
की तुक ‘मन’
फिर ‘दामन’,
‘झिलमिलाती’ की
तुक ‘बुलाती’
और आगे ‘खिलखिलाती’,
‘न्यारे’ की
तुक ‘न्यारे’
और ‘प्यारे’
की तुक ‘प्यारे’,
‘चलना’ की
तुक ‘कटना’
आगे ‘पलना’-‘जलना’-‘मिलना’-फिर
‘मिलना’,‘नादानी’
की तुक ‘निगरानी’-‘पुरानी’-‘नूरानी’
के रूप में ‘गजल
गरिमा’ में प्रकाशित गजलों में
काफियों के अशुद्ध रूपों के बावजूद यदि ‘अतुल
कनक’ यह कहते हैं कि‘‘
हिन्दी गजल के प्रति आपकी [भानुमित्र] संचेतना और
आपकी सक्रियता ने नये नगीने जड़ दिये हैं।’’ या
‘आप नैष्ठिक संकल्प के
साहित्य साधक हैं। गजल के पारख हैं, बहर
में पारंगत हैं... हिन्दी गजल को आपसे बड़ी आशा है।’’
[डॉ. किशोर काबरा] अथवा ‘‘हम
साहित्यकारों को निर्भीक और निडर विपक्ष की भूमिका का निर्वाह करने का समय आ गया
है और मैं फक्र के साथ कह सकता हूँ कि ‘गजल
गरिमा’ के माध्यम से आप ऐतिहासिक
कार्य कर रहे हैं [डॉ. विनय मिश्र] तो समझ में आने लगता है कि अंधे रेबड़ी बाँट
रहे हैं और घूम-फिर कर अपनों को ही दे रहे हैं। भानुमित्र के ‘गजल
गरिमा’ नामक इत्र से इतने अभिभूत
या आनंदित हैं कि इनके मुँह से हर उल्टी-सीधी बात पर केवल ‘वाह’
निकल रही है।
भानुमित्र को गजल का पारखी,
बहर का पारंगत और नैष्ठिक संकल्प का साहित्य साधक
बताने वालों में गजल के प्रति कितनी समझ है, आइये
देखें-
डॉ. किशोर काबरा की ‘गजल
गरिमा’ के प्रवेशांक के पृ.3 पर
दो गजलें छपी हैं, पहली
ग़ज़ल का मतला इस प्रकार है-
उम्र-भर
बिजलियों के सहारे रहे
मेरी
आँखों के बादल कुँआरे रहे।
यहाँ ‘बिजली’
स्त्रीलिंग है और ‘आँख
का बादल’ पुल्लिंग। बादल के बीच
बिजली कौंधती है तो उसके प्रकाश में बादल का समूचा जिस्म नहा उठता है। बादल और
बिजली के ऐसे मिलन के बावजूद फिर भी कोई बादल कुँआरा रह जाता है तो मानना पड़ेगा,
यह कथन मौलिक है और अर्थहीनता का शिकार होने के
बावजूद हिन्दी गजल के माफिक है।
बादलों के योग नहीं,
हवा के निम्न या उच्च दबाव के तूफान आते हैं,
इस तथ्य को डॉ. ब्रह्मजीत गौतम झुठलाते हैं और
बताते हैं-
बादलों
का योग कुछ ऐसा बना है
फिर
किसी तूफान की सम्भावना है। [गजल गरिमा- प्रवेशांक,पृ.9]
‘और’
को तोड़-मरोड़ कर ‘अर’
बनाते हुए, ‘हेतु’
को ‘हेतू’
दिखाते हुए अर्थात् ग़ज़ल को गजल का पाजामा पहनाते
हुए श्री राम दयाल मेहरा घर की चौखट को मचलने की क्रिया से जोड़ते हैं। जिस चौखट
के न पाँव हैं न हाथ, न प्राण
हैं न आँख, वे उसे
सजीव करते हैं। अर्थ निकले न निकले लेकिन चौखट मचल कर बाहर आ जाती है। ‘शायद
इसी तरह ‘हिन्दी
गजल’ कही जाती है-
घर
की चौखट फिर मचली है
वह
शायद बाहर निकली है। [गजल गरिमा प्रवेशांक पृ.8]
सूर्य का प्रकाश आकाश से पृथ्वी तक की दूरी
अपनी किरणों के माध्यम से सीधी रेखा में ही तय करता है। प्रकृति का यह विधान
अपरिवर्तनीय है। किन्तु गजल के समझदार चिंतक श्री अनिरुद्ध सिन्हा को लगता है कि
जिधर रोशनी कम पड़ रही है, उधर
सूर्य कोई साजिश कर रहा है। वे अदृश्य कर्त्ता की ओर मुखाबित होते हैं और भर्ती के
‘सचमुच ही’
दो शब्दों के साथ उससे सूर्य-किरणों का ‘जरा-सा’
[यह भी भर्ती के दो शब्द] रुख बदलने को कहते हैं।
सिन्हाजी पता नहीं कौन-सी वैज्ञानिक दुनिया में रहते हैं।
‘‘मैं
कहता हूँ सचमुच ही इधर कुछ रोशनी कम है
उभरती
सूर्य किरणों का जरा-सा रुख बदल देना। [ गजल गरिमा-2,
पृ.8]
डॉ. माया सिंह ‘भाव’
[विचार] को शिल्प और छन्द को आत्मा बताकर ‘हिन्दी
गजल’ को ‘छन्दबद्ध
विचार प्रधान’ काव्य
बतलाती हैं। गजल गरिमा-4, पृ.13 पर
उनका काव्य के संदर्भ में यह ज्ञान कितना महान है, इसका
आभास तो उनके अपरोक्त बयान से ही मिल जाता है। अब पहचानें कि उनको गजल लिखना या
कहना कितना आता है। ‘गजल
गरिमा’ के तीसरे अंक के पृष्ठ-8
पर उनकी एक गजल प्रकाशित है। इस ग़ज़ल के अन्तिम शे’र
में उनका ‘छन्दबद्ध
विचार’ ऐसी मानसिक बीमारी का
शिकार है, जो अर्थ
की सामर्थ्य को व्यर्थ साबित करता है। शे’र
में बौद्धिकपन ऐसा कि ‘छन्द को
गजल की आत्मा मानकर’ इसके भाव
या विचार को परमात्मा को समझने के लिये छोड़ा जा सकता है। मनुष्य रूपी पाठक की समझ
से परे, इस सौ फीसदी शुद्ध,
सौ फीसदी खरे शे’र
का अवलोकन करें-
इज्जत
कि आबरू की क्या बात करें ‘माया’
फैशन-सी
चल रही है हर लाज तक गुजर में।
उपरोक्त उदाहरणों से जो बात छनकर बाहर आती है,
वह है ग़ज़ल को गम्भीर अर्थों में नहीं,
एक फैशन की तरह लिया जाना। कभी सिर घुटाना तो कभी
सिर के बाल बढ़ाना, कभी मूँछ
मुड़ाना तो कभी मूँछ रखाना और इस तरह चर्चा में बने रहना। हिन्दी के गजलकार ग़ज़ल
के मुँह पर कालिख पोत रहे हैं और इसे मेकअप बता रहे हैं। कोई [ डॉ. सौम्या,
ग़ज़ल गरिमा-3, पृ.6]
मतला में ‘यामिनी’
की तुक ‘रूपसी’
से मिलाकर आगे की तुकें ‘चाँदनी’,
‘दामिनी’, ‘सनसनी’,
‘लेखनी’ लाकर
‘काफियों’
को बीमार कर रहा है तो कोई [सुश्री वन्दना,
गजल गरिमा-3,पृ.7]
‘लगे’,
‘उठे’ क्रिया
के एकवचन रूप में ‘दिखें’,
‘झरें’ तुकें
लाकर बहुवचन का रंग घोल रहा है तो कोई [आभा पूर्वे, गजल
गरिमा-3, पृ.9] संयुक्त
रदीफ-काफियों में कही गयी गजल में ‘याद’
की ‘फरियाद’
से, ‘बाद’
की ‘आबाद’
से निकृष्ट तुक भिड़ाकर बोल रहा है-‘सही
काफिये ढूँढो’। भाँग
पीकर गजल को कहने का ये स्वांग बाकई कमाल का है।
गजल का आम कार्बेट में पका है या डाल का है,
इसकी पहचान आजकल भानुमित्रजी ही करा सकते है सो करा
रहे हैं और वे बता रहे हैं-‘‘ जल
तत्त्व की रासायनिक विच्छेदन क्रिया का सूत्र ध्यान में रखें... हिन्दी गजल की
भाषा वह होगी, जिसमें
अरबी-फारसी तत्समों को अलग कर दिया जाये और उसे देवनागरी में लिखा जाये।’’
[गजल गरिमा प्रवेशांक,
पृ.25]
‘उर्दू
शब्द’, ‘उर्दू व्याकरणिक भाषा’,
‘उर्दूनुमा शे’र,
‘ग़ज़ल का उर्दू फ्रेम’,
‘हिन्दीनुमा उर्दू लिपि’
‘छन्दविहीन काव्य की भाषा और उसका गजल में प्रयोग’,
‘शब्द प्रधान काव्य’ से
भानुमित्रजी का आशय क्या है, यह तो
वही जानें? आइये
उनके द्वारा रचित उनकी कथित [ग़ज़लों नहीं] ‘गजलों’
के मर्म को छूएँ, उसे
पहचानें। श्री भानुमित्र ने ‘गजल
गरिमा’ जन-मार्च-12 अंक-4 पृ. 32
पर ‘मेरी गजलें’
शीर्षक से चार गजलें प्रकाशित की हैं। उनकी पहली
गजल संयुक्त रदीफ काफियों में इस प्रकार है-
नागरी
में है गजल ये नागरी में सोचिए
आत्मा
में वर्णमाला की कहीं तो झाँकिए।
प्रेम-पथ
के तीर्थ पर होता है सबका मिलन
अर्थ-सागर
में उतर कर शब्द को पहिचानिए।
सूर्य
भी देता नहीं अपनी किरन टेढ़ी कभी
सोच
जो पहुँचाना है तो भाषा सीधी दीजिए।
कैसे
वे संकेत समझें सीधे-सादे लोग हैं
शब्द
अपने, बोली अपनी,
भाषा अपनी बोलिए।
सृष्टि
को संतान देकर जो थी जननी माँ हुई
मान
पहले दीजिए फिर मान खुद भी पाइए।
अर्थहीनता, लयभंगता
और मात्रा-दोष की शिकार उपरोक्त गजल का अवलोकन करें तो नागरी में कही गयी इस गजल
में भानुमित्रजी ने नागरी में सोचते हुए, इसकी
वर्णमाला की आत्मा में झाँकते हुए, अर्थ
के सागर में उतर कर शब्दों को पहचानते हुए, अपने
शब्द-अपनी बोली-अपनी भाषा में बोलते हुए, टेढ़ी
भाषा को सीधी करते हुए, सिर्फ
इतना ही बतलाया है कि ‘जननी’
और ‘माँ’
में शायद कोई अन्तर होता है। इसके साथ-साथ उन्होंने
यह भी समझाया है कि सीधे-सादे लोगों तक संकेतों में सोच को पहुँचाने के लिए भाषा
को सीधा करना पड़ता है। अर्थ के सागर में उतरकर [अर्थ को नहीं] शब्द को पहचानना
पड़ता है। तब कहीं मानना पड़ता है कि ये ‘ग़ज़ल’
नहीं ‘गजल’
है, जिसमें
‘पहचानिए’
की तुक ‘जानिए’
लाकर काफियों को सिसकने को मजबूर कर दिया जाना,
एक प्रकार की खूबसूरती लाना है।
गजल संख्या-4 की अधिकांश तुकें ‘ई’
स्वर के आधार पर बदलाव का संकेत अवश्य देती हैं
लेकिन तुकें ‘मुखी’
और ‘दुखी’
[दुःखी नहीं] के बीच काफिए कीच बनकर दुर्गन्ध
छोड़ते हैं। इस ग़जल में जहाँ तक रदीफ का सवाल है इसका पता तो श्री भानुमित्र ही
लगा सकते हैं। ये हिन्दी गजल है, हम
क्या बता सकते हैं?
भानुमित्रजी की द्वितीय गजल पढ़ते-पढ़ते भी
माथा ठनकता है कि इसका सही रदीफ ‘आज
है फिर कल कहाँ’ है अथवा-
‘आज हैं फिर कल कहाँ’
के रूप में माना जाना चाहिए। ‘ये
खुशी है दो घड़ी की आज है फिर कल कहाँ, रंग हैं इन्दधनुषी आज हैं फिर कल कहाँ’
इसी गजल के अलग-अलग दो मिसरे हैं। इन दो मिसरों में
रदीफ का परस्पर विरोधी रूप अगर सही है तो यह मानने पर विवश करेगा ही कि-‘‘हिन्दी
गजल का दाना-पानी अरबी-फारसी से नहीं आता है [ डॉ. किशोर काबरा,
गजल गरिमा-जन-मार्च-12,पृ.24]।
इसी ग़जल के तीसरे शे’र में ‘और’
का रूप ‘अर’
तथा ‘हिम
जैसी महकती साँस’ का
अलौकिक स्वरूप अनूठे उपमा अलंकार की फाँस बन जाता है।
फूल
से बातें करें अर गन्ध से सीना भरें
ये
महकती साँस हिम-सी आज है फिर कल कहाँ।
इस गजल के पाँचवे शे’र
[आँख में ऐसी मिचोली आज है फिर कल कहाँ] में ‘आँख’
में मिचौली’ का
प्रयोग मुहावरे‘
आँख मिचौली’ के
अर्थ पर इतना भारी पड़ता है कि मुहावरे और इसके अर्थ को ही ले डूबता है।
भानुमित्रजी की तीसरी ग़जल के प्रथम शे’र
पर आते हैं। आइये इसकी रेत की नदी में डुबकी लगाते हैं। शे’र
है-
कोई
पुस्तक खुली नहीं होती
रेत
पर ही नदी नहीं होती।
‘कोई’
कहकर अज्ञानता को प्रकट करता यह शे’र
‘रेत पर नदी के साथ ‘ही’
के निरर्थक प्रयोग से अर्थ की लय में एक रोग
उत्पन्न करता है। ‘रेत पर
ही नदी नहीं होती’ से क्या
यह अर्थ लगाया जाये कि रेत को छोड़कर हर स्थान पर नदी होती है या ये माना जाये कि
रेत पर नदी नहीं होती। रेत पर नदी की पुस्तक पढ़ने का यह उतावलापन,
‘कोई’ शब्द
के प्रयोग के साथ अर्थ के नये द्वार खोलता है, या
किसी गूँगे की भाषा बोलता है? गजलकार
जिस पुस्तक को रेत में टटोलता है, उस
पुस्तक का हर शब्द भ्रम में डालता है। यह पाठक पर निर्भर है कि इन दो पंक्त्यिों
का अर्थ क्या निकालता है?
‘याद
को बस कुरेदते रहिए, याद जब
तक सुरी नहीं होती’ में ‘सुरी’
शब्द छुरी अधिक दिखायी देता है जो राख के बीच किसी
चिंगारी को कुरेदता-सा महसूस होता है। कल्पना के अलाव पर तापते हुए शे’र
में एक निरर्थक शब्द डालकर ‘परी’
की तुक ‘सुरी’
से जरुर मिल जाती है,
लेकिन इसमें ‘री’
की दो बार आवृत्ति काफिये के स्वर के आधार पर बदलाव
में घाव पैदा करती है।
गजल के तीसरे शेर [उस उदासी का क्या करे कोई,
जो भली या बुरी नहीं होती] में जब ऋणात्मकता के रूप
में ‘उदासी’
मौजूद है तो ये भली कैसे हो सकती है?
क्या कोई भाव एक ही संदर्भ में सुख और दुःख का
पर्याय बन सकता है। यदि इसमें तटस्थता है तो इस तरह का भाव रस नहीं रसाभास को
उत्पन्न करेगा।
गजल संख्या-4 के तीसरे शे’र-[तोड़ते
हो क्यों खिलौने जिद्दी बच्चे की तरह, कोशिशें
तुम लाख कर लो मैंन होऊँगा दुखी] एक चर्चित शायर की ग़ज़ल की नकल से पैदा किया गया
है। फिर भी इसमें यदि गजलकार टूटते खिलौनों पर दुःखी होना ही नहीं चाहता है तो ‘क्यों’
के रूप में विरोध क्यों जताता है?
इसी ग़जल के चौथे शे’र
में ‘मरुधरा के सिन्धु’
की बात कही गयी है। क्या यह प्रयोग के लिये एक कोरा
प्रयोग नहीं? क्या
इसमें सही शब्दों के न चुन पाने का रोग नहीं?
भानुमित्रजी कहते हैं कि ‘‘लोकतंत्र
के पुननिर्माण एवं चारित्रिक मूल्यों की वापसी के लिये हिन्दी गजल में लोकतांत्रिक
रँग भरना होगा।’’ वे अपनी
गजल के माध्यम से लोकतंत्र की रक्षा कैसे कर रहे हैं। बानगी के तौर पर लेख के अंत
में उनका एक शे’र
प्रस्तुत है-
‘धूप
खिलाना है जरूरी बारिशों के छोर पर,
केश-राशी
जब खुले तो हाथ में हो कांगसी।
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+रमेशराज,
संपादक-तेवरीपक्ष,
15/109, ईसानगर,
अलीगढ़-202001
मो.9634551630