Tuesday, September 10, 2019

ग़ज़ल और तेवरी का विवाद बेकार की कवायद +भगवानदास जोपट

ग़ज़ल और तेवरी का विवाद बेकार की कवायद                                         

+भगवानदास जोपट
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                हिन्दी कविता के क्षेत्र में कविता की अनेक विधाओं के मध्य तेवरी विधा का केंद्रीय स्थान है। अनेक काव्यांदोलनों का साक्षी रहा हिंदी कविता का वांड्मय तेवरी आंदोलन का भी गवाक्ष रहा है, जहाँ समय की विडंबनाओं एवं विसंगतियों ने इसे धारदार एवं तेवरयुक्त काव्याभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। मेरी दृष्टि में तेवरसे तेवरीशब्द का नामांकन हुआ है, जिन्हें हम कबीर की आधुनिक उलटबांसियाँ भी कह सकते हैं। अपने छंदानुशासन से, कहन से, मात्राओं की गणना से और तुकबंदी से  ग़ज़ल और तेवरी दोनों अलग-अलग विधाएँ हैं और जो लोग तेवरी को हिंदी ग़ज़ल का एक रूप मानते हैं, उनकी समझ पर सिवाय तरस खाने के और क्या किया जा सकता है। एक प्रकार के विरोध-रस को स्थापित करने का यह तेवरी-पक्षका अनूठा प्रयास है, जो इस मायने में सार्थक है कि तेवरी विधा अब परिचय की मोहताज नहीं रही है तथा इसे व्यापक जनस्वीकार्यता भी मयस्सर हुई है। मेरे विचार में ग़ज़ल और तेवरी का विवाद बेकार की कवायद है।
         विगत छब्बीस सालों से तेवरीपक्षका अनवरत प्रकाशन इस बात का प्रमाण है कि हिंदी काव्य की सतरंगी विधाओं में तेवरी का भी अपना रंग है। श्रीयुत् रमेशराज, अलीगढ़ द्वारा संपादित प्रकाशित तेवरीपक्ष[त्रैमासिक] का अक्टूबर-दिसम्बर-09 अंक मेरे सामने है, जिससे गुजरते हुए हिंदी कविता के इस नूतन पक्ष के यमकदार तेवर एवं विरोधरस का आस्वाद मिलता है। यह धारदार, पैनी रचनाधार्मिता से ओतप्रोत लघु पत्रिका बिहारी के शब्दों में-‘देखण में छोटी लगे पर घाव करे गंभीर’  को चरितार्थ करती है। उदाहरण के रूप में आवरण पर रमेशराज की दो तेवरियों की पंक्तियों ध्यातव्य हैं। उन्होंने इन तेवरियों को ‘यमकदार तेवरियां’ शीर्षक दिया है। पहली तेवरी की पंक्तियां देखिए-
तन-चीर का उफ् यूँ हरण, कपड़े बचे बस नाम को,
हमला हुआ अब लाज पै, अबला जपै बस राम को।
                कविता का काम मनोरंजन करना नहीं  बल्कि गाफिल आदमी को झिंझोड़कर जगाना है। मध्यकाल में जो काम कबीर ने किया था, वही काम आज तेवरी कविताकर रही है। समय के सच को दिखलाकर आदमी को बाखबर कर रही है। ‘मंच’ स्तंभ के अंतर्गत ‘हिंदी ग़ज़ल के कथ्य  का सत्य’, संपादक रमेशराज का आलेख हिंदी ग़ज़ल की अद्यतन प्रवृत्तियों पर एवं उसके कथ्य पर बेवाक लेख है जो संभवतः संपादकीय आलेख भी है। उक्त लेख में विद्वान लेखक ने हिंदी ग़ज़ल के कुछ नामचीन रचनाकारों की ग़ज़लों के आलोक में हिंदी ग़ज़ल के प्रायः समूचे परिदृश्य का तटस्थ विश्लेषण किया है, जो ग़ज़ल सृजन पर एक परिपक्व विमर्श है। हिंदी ग़ज़ल का इतिहास, उसका सौंदर्य तत्व, उसके  छंदगत व्याकरण-विन्यास एवं उसकी अधुनातन प्रवृत्तियों पर नीर-क्षीर दृष्टिपात किया गया है। इस लिहाज से यह आलेख ग़ज़ल के अध्येताओं एवं मुझ जैसे सामान्य किस्म के काव्य-मीमांसकों के लिए समान रूप से उपयोगी है। प्रेयसि की नाजुक अदाओं, उसके हुस्नोजमाल एवं विरहाग्नि के रीतिकालीन वर्णन से शुरू हुआ ग़ज़ल का सफर आज के आदमी की मुश्किलतर होती जाती जिंदगी एवं उसके दैनंदिन संघर्षों के कटु यथार्थ का जीवंत प्रस्तुति तक, बहस-मुबाहिसा है, जो इस लेख को पठनीय एवं संग्रहणीय बनाता है। कुछ प्रमुख हस्ताक्षरों की ग़ज़लों की पंक्तियों के बहाने यह सार्थक विमर्श किया है उनमें सर्व श्री डॉ. अनंतराम मिश्र अनंत’, डॉ. महेश्वर तिवारी, उर्मिलेश, चांद शेरी, राम सनेही लाल यायावर’, शिव ओम अंबर, डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, नित्यानंद तुषार’, महेश अनघ, कुंवर बेचैन, पुरूषोत्तम यकीन’, आलोक यादव’, अशोक आलोक’, ‘प्रेमकिरण सागर मिर्जापुरी, श्याम अंकुर ;सं. सौगातद्ध, डॉ. प्रभा दीक्षित, जनकवि श्रमिक, राजेंद्र तिवारी, प्रमुख गजलकार उल्लेखनीय हैं। जो कथ्य से साक्षात्कार, मर्म को स्पर्श करने वाली जीवंत बिंबात्मकता, सहजता-सरलता या तरलता आदि बिंदुओं को समाहित किये हुए है।  यह आलेख ग़ज़ल-सृजन के नौसिखियों के लिए भी उपादेय है, साथ में ग़ज़ल के इन दिग्गजों के लिए भी जो, विरोधाभासों की ग़ज़लें लिखकर स्वयं को दुष्यंत की परंपरा का वाहक समझ बैठे हैं। इस खोजपरक आलोचना लेख के लिए संपादक साधुवाद के हकदार हैं। निश्चय ही यह लेख पढ़कर हिंदी ग़ज़ल के समकालीन कांतिधर्मा चरित्र की भ्रांत अवधारणा का पर्दाफाश होता है। पाठकीय स्तंभ में तेवरी और ग़ज़ल पक्ष पर चुनिंदा पत्र छपे हैं, जो पाठकों की जागरूकता का परिचायक हैं। कुछ पत्र प्रशंसा में है तो कुछ पत्र नैगेटिव सुर के भी हैं, जो निष्पक्ष संपादकीय नीति के  द्योतक हैं। आलोचनात्मक पत्र प्रकाशन स्वस्थ पत्रकारिता का उदाहरण हैं, जो बहुत कम संपादकों में देखा जाता है। अधिकांश पत्र तेवरी-पक्ष की हिमायत में छपे हैं। इनमें विरोध रसके स्वरूप पर और ग़ज़ल के स्वरूप पर पत्र उल्लेखनीय हैं । उक्त अंक में प्रकाशित तेवरियों में राजकुमार मिश्र की 12 तेवरियां दी गयी है, धारदार तीखे शब्दों की अभिव्यंजना और व्यंग्य का संपुट तेवरी को तीक्ष्ण तेवर प्रदान करता है। अतएव विसंगतियों एवं विद्रूपताओं को बेनकाब करने में यह विधा जितनी कारगर है, उतनी ग़ज़ल नहीं। इसके शिल्प-रस,छंद भाषा-शैली, कथन भंगिमाएं, अलंकार, प्रतीक,मुहावरे यहां तक कि वक्रोक्ति का तीखा दंश इसे ग़ज़ल से अलगाते है और मुकम्मिल तौर पर तेवरी को एक अलग काव्य विधा का दर्जा देते हैं। कुछ प्रकाशित तेवरियों के रचनाकार हैं- सर्वश्री हितेश कुमार शर्मा, डॉ. शारदा प्रसाद सुमन, अंकुर, फजलुर रहमान हाशमी, डॉ. अवधेश, डॉ. सर्वनानंद द्विवेदी, नरेश हिमलपुरकर आदि।
          हिंदी साहित्य में विरोध.रसकी खोज करके रमेशराज ने हमारे वाड्मय को समृद्ध किया है, वास्तव में विरोध का भी अपना रस होता है, भले ही उसकी प्रतीति का आस्वाद तल्खी से परिपूर्ण क्यूं न हो। इस तरह विरोध रस की सृष्टि और तेवरी पर गवेषणात्मक शोध करके रमेशराज ने स्तुत्य कार्य किया है। और अंत में दर्शन बेजार का तेवरी संग्रहये जंजीरें कब टूटेंगीसे 16 तेवरियां प्रकाशित कर संपादक ने इस तेवरी अंक को संग्रहणीय बना दिया है- पत्रिका का समापन रमेश प्रसून, खालिद हुसैन सिद्दीकी, डॉ. प्रद्युम्न भल्ला, संजीव वर्मा सलिल, सुरेंद्र दीप और डॉ. ब्रहमजीत गौतम की तेवरियों से हुआ हैं । इस प्रकार धारदार व्यंग्य तेवर से युक्त तेवरीपक्ष  के इस अंक का हिंदी जगत् में स्वागत होगा।


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Thursday, September 5, 2019

ग़ज़ल एक प्रणय गीत +रमेशराज


ग़ज़ल एक प्रणय गीत
+रमेशराज
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ग़ज़ल का अतीत एक प्रणय-गीत, महबूबा से प्रेमपूर्ण बातचीतके रूप में अपनी उपस्थित दर्ज कराते हुए साहित्य-संसार में सबके सम्मुख आया। ज्यादा भटकने की जरूरत नहीं है, ‘मद्दाहका शब्दकोष देख लीजिए, उ.प्र. हिन्दी संस्थान की प्रामाणिक शब्दकोषीय पुस्तक टटोल लीजिए, या नालंदा अद्यतन शब्दकोषका अवलोकन कीजिए, इन सबके भीतर ग़ज़ल शब्द का अर्थ प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीतही इसके अतीत का साक्षी बनकर खड़ा है। वह चीख-चीख कर कह रहा है कि ग़ज़ल की खमदार जुल्फें हैं, आँखों में काजल से कँटीलापन है, अधरों पर प्रेमी से मिलने का आलाप है। हाथों पर मेंहदी का रचाव है, पाँवों में प्रेमी को रिझाने के लिये महावर से रचाव है। हिरनी जैसी चाल है। मस्ती है, धमाल है। ग़ज़ल प्रेमी के लिये या तो प्रेमिका से मिलने का आमंत्राण है या निरंतर मिलते रहने का प्रण है। ग़ज़ल का रूहानी रूप भी आशिक और मासूक का मायाजाल है। ग़ज़ल रति और कामदेव-के मिलन की प्रेमकथा है। ग़ज़ल का हर रूप-स्वरूप सिर्फ और सिर्फ प्रणय निवेदनमें रचा-बसा है।
                          ग़ज़ल एक निश्चित शिल्प ;शे, रदीफ, काफियों, मतला और मक्ता के साथ-साथ एक निश्चित बहर में अपनी नाजुक-बयानी के लिये जानी और मानी जाती है। लेकिन आज के कथित ग़ज़लकार को इसके इस रूप को प्रयोग में लाते हुए भी इसी रूप पर शर्म भी आती है। वह ग़ज़ल के इस प्रेम-रूप को मारना चाहता है। मतला, मक्ता से मुक्ति के साथ-साथ इसकी बहरों के पेट में चाकू उतारना चाहता है। इसकी आत्मा प्रणयात्मकताके सीत्कार को आम आदमी के चीत्कार में बदलकर इसमें जनवादी चरित्र फिट कर हिट होना चाहता है। हिट होने की यह गिटपिट भले ही ग़ज़ल के शास्त्रीय पक्ष के अनुकूल न हो, लेकिन वह इस तरीके से सामाजिक सरोकारों के फूल खिलाना चाहता है। वह अपनी एक ही ग़ज़ल के कुछ शेरों में थिरकती चितवन के वाण छोडता है, प्रेमिका से आलिंगनबद्ध होता है, रति और कामदेव की तस्वीर खींचता है तो उसी ग़ज़ल के अन्य शेरों को जनपीड़ा से जोड़कर, महान हो जाना चाहता है। ग़ज़ल के भीतर का सीत्कार जब चीत्कार का भी आभास देने लगता है तो ग़ज़लकार के ग़ज़ल कहने या लिखने, पर एक उपहास, अट्टहास की मुद्रा में खड़ा हो जाता है। और फिर सवाल उठाता है कि क्या प्रेमिका को बाँहों में भरने का जोशऔर कुव्यवस्था से पनपा आक्रोश एक ही सिक्के के दो पहलू हैं? क्या चुम्बन और क्रन्दन का अर्थ एक ही होता है?
                सीत्कारऔर चीत्कार, ‘प्रेमिका को बाँहों में भरने के जोशऔर कुव्यवस्था से पनपे सामाजिक आक्रोश तथा चुम्बन और क्रन्दन का क्या एक ही अर्थ होता है? दुर्भाग्य यह है कि आज का मानसिक रूप से बीमार ग़ज़लकार इन चीजों में भेद करने को तैयार नहीं है। अशुद्ध मतलों या लुप्त रदीफ-काफियों से युक्त कथित ग़ज़ल के प्रति उसका विश्वास यह है कि वह श्रेष्ठ ग़ज़ल कह रहा है | उस पर दम्भ यह कि उसके इस कर्म को श्रेष्ठ कर्म माना ही नहीं, सराहा भी जाये। ऐसे ग़ज़लकार ग़ज़ल की बहर के विधान को जानते ही नहीं हैं, इसलिये उसमें हिन्दी छन्दों को घुसेड़ रहे हैं। हिन्दी में हिन्दी-छन्दों की मात्राएँ गिराकर, सुकर्म नहीं कुकर्म करने में जुटे हैं। ग़ज़ल का हर शेर पूर्ण होता है ठीक दोहेकी तरह। किन्तु इस व्यवस्था को तोड़कर ग़ज़ल को गीत जैसा रूप देकर वह मगन है। ग़ज़ल अपने इस आत्मरूप और विकृत शिल्प पर आँसू बहा रही है। लेकिन ग़ज़लकारों को अपने इस कुकर्म पर जरा भी शर्म नहीं आ रही है।
                ग़ज़ल के इन कथित महान रचनाकारों, परम विद्वानों, अति ज्ञानियों को ग़ज़ल के प्रति किये गये कुकर्म को लेकर आशंका न हो, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। ये विद्वान अनेक शंकाओं से भी घिरे हैं। तभी तो इस विकृत रूप को नये-नये नाम देने की कोशिश में लम्बे समय से जुटे हैं। कोई इन्हें गजलिकाकहता है तो कोई अग़ज़ल’, कोई इसे गीतिकानाम देना चाहता है तो कोई मुक्तिका। कोई इसे बाल ग़ज़लपुकार रहा है तो कोई दोहा ग़ज़ल। कोई हिन्दी ग़ज़ल  के रूप में इसकी स्थापना करना चाहता है तो कोई ग़ज़ल के नीचे के नुक्ते हटाकर इसे नुक्ताविहीन गजलके रूप में हिन्दी की अमूल्य विरासत बना रहा है। कुल मिलाकर ग़ज़ल के नियमों-उपनियमों, शास्त्रीय पक्षों को पछाड़कर, ग़ज़ल को जड़ों से उखाड़कर ऐसे कथित ग़ज़लकार ग़ज़ल पर विशेषांक-दर-विशेषांक निकाल रहे हैं, अपने ग़ज़ल संग्रहों की ऐसी भूमिकाएँ स्वयं लिख रहे हैं या अन्य ग़ज़ल-भक्तों से लिखवा रहे हैं और ग़ज़ल के                  सुधी पाठकों को समझा रहे हैं कि ग़ज़ल अब ग़ज़ल की नकल नहीं रही। इसकी नयी शकल हम गढ़ रहे हैं, ग़ज़ल के क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं और एक दिन इसी बदले रूप को स्थापित करके मानेंगे।
                आज की ग़ज़ल यदि ग़ज़लपन की सारी शर्तों को पूरा कर रही होती तो उसे ‘सजल’,ग़ज़लिका’, ‘अगजलगीतिका, मुक्तिका, दोहा ग़ज़ल, बाल ग़ज़ल, व्यंग़ज़ल, आजाद ग़ज़ल, अवामी ग़ज़ल,  नुक्ताविहीन गजलआदि-आदि नये नाम देने की आवश्यकता न पड़ती। गीतिकाएक चर्चित छंद है, फिर ये गीतिकाक्या है? मुक्तिका किस चीज से मुक्त होना चाहती है? अगजल जब ग़ज़ल है ही नहीं तो इस नाम का औचित्य क्या? आज यदि बहर की हत्या कर दोहा ग़ज़लआयी है तो क्या दोहा ग़ज़लके समान छन्द के आधार पर गीतिका, हरिगीतिका, चैपाई, सोरठा आदि ग़ज़ल के रूप सामने आने चाहिए या आयेंगे? आज यदि बाल ग़ज़ललिखी गयी है तो क्या भविष्य में उम्र को ध्यान में रखकर किशोर, किशोरी, युवक-युवती, प्रौढ़ा, वृद्ध-वृद्धा ग़ज़ल भी लिखी जायेंगी? ठीक यही स्थिति अवामी ग़ज़ल, आजाद ग़ज़ल की है? अवामी ग़जल नाम यदि सही है, तो नेता ग़ज़ल, अफसर ग़ज़ल, उद्योगपति ग़ज़ल, सेठ-ग़ज़ल की शकल थी देखने को मिलेगी? आज ग़ज़ल में यदि ग़ज़ल के नियम उपनियम आजाद हैं तो इस कथित आजादी में क्या इसके शास्त्रीय स्वरूप की हत्या नहीं?
                ग़ज़ल के शास्त्रीय आधार की हत्या करने वाले ऐसे ग़ज़लकार इन मूलभूत प्रश्नों के उत्तर देने में तो अपने हलक को सूखा कर लेते हैं, किन्तु सवाल जब हिन्दी साहित्य की नूतन विधा तेवरी का आता है तो ग़ज़ल के यही कथित पक्षधर, दम्भी-अहंकारी विद्वान तेवरी के प्रति मुखर ही नहीं होते, प्रहार और वार की मुद्रा में आ जाते है और चीखते-चिल्लाते हैं कि-‘‘ तेवरी को ग़ज़ल के शिल्प में क्यों लिख रहे हो। तेवरी अपरिपक्व मस्तिष्कों की उपज है, खालिस्तान बनाने की माँग है। ग़ज़ल का अधकचरा अनुकरण है। आज यदि तेवरी आयी है तो कल इसका पीछा घेवरी और पेवरी भी करेंगी।’’ आदि-आदि”।
                तेवरी के शिल्प पर ग़ज़ल की नकल के आरोप ऐसे ग़ज़ल के अतिज्ञानी थोप रहे हैं, जो यह नहीं जानते कि जब किसी रचना का कथ्य बदलता है तो उसी के साथ शिल्प भी परिवर्तित हो जाता है। शिल्प भी उसी राग को गाता है, जो कथ्य को सुहाता है। देखा जाये तो कथ्य और शिल्प में अधूरे प्रकार से नहीं, पूरी तरह समानुपाती नाता है। शिल्प काव्य का वह साधन है जिसके माध्यम से विचार के द्वारा बने भाव, अनुभाव के रूप में प्रकट होते हैं। काव्य में अन्तर्निहित विचार जिस प्रकार का है, वह उसी प्रकार की ऊर्जा प्रदान करता है। यह ऊर्जा भाषा के उसी रूप को ग्रहण करती है, जिसके माध्यम से पाठकों, दर्शकों तक सहज, सरल और सार्थक तरीके से सम्प्रेषित हो सके। मसलन-यदि किसी कविता में रौद्ररस को प्रकट किया गया है तो उस रस की शब्दावली में वही शब्द आयेंगे या आते हैं, जिनमें तल्खी, ललकार, मार, फटकार, वार, संहार, प्रतिकार, दुत्कार, गर्जना आदि हो। यदि कविता शृंगार रस की होगी तो उसकी शब्दावली रौद्ररस के शब्दों के ठीक विपरीत ऐसे शब्दों को चयनित करेगी जिनमें प्यार, अभिसार, चुम्बन, आलिंगन, सीत्कार, मिलन आदि का स्पर्श हो। ऐसा कदापि नहीं होगा कि कविता रौद्ररस की हो और उसकी शब्दावली में पायल की खनक, मैंहदी और महावर का रचाव, मिलन का चाव शाब्दिक स्थान पा सके। इसका सीधा अर्थ यह है कि तरह-तरह के विचारों से उत्पन्न भाव भी तरह-तरह के होते हैं और इन भावों के बदल जाने पर उनसे उत्पन्न अनुभावों को जिस माध्यम से प्रकट किया जाता है, भाव बदलने पर वह माध्यम भी बदल जाता है। इस बात को हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि विचार और भाव अर्थात् काव्य का आत्मरूप कथ्य यदि परिवर्तित होता है तो काव्य के शिल्प का एक पक्ष यदि रस बदलता है तो दूसरा पक्ष उसकी भाषा शैली भी खुद-ब-खुद बदल जाती है।
                लेकिन ग़ज़ल फोबिया के शिकार हमारे माननीय ग़ज़लकार हैं कि वे ग़ज़ल के आत्मरूप [विचार और भाव] जिसमें शृंगार रस का ही समावेश होना चाहिए, उसे बदलकर उसमें व्यवस्था के प्रतिकार, पीडि़त की चीत्कार, सामाजिक सरोकार, आम आदमी के अभाव-घाव, नैतिक पतन, यहां तक कि कथित जनवादी चिन्तन को उसमें ठूँस रहे हैं। ग़ज़ल की प्रणयात्मक भाषा शैली को बदलकर उसे व्यवस्था के सताये लोगों की क्रन्दन शैली बना रहे हैं।
       इस सुकृत्य से ग़ज़ल के कथ्य में जो बदलाव आया है, जो विरोध रस का स्वर मुखरित हुआ है, उसे न तो पहचान पा रहे हैं, और न इस कथ्य और शिल्प के बदलाव को नया सार्थक नाम देने का प्रयास कर रहे हैं।
                                                                                                -रमेशराज