ग़ज़ल और
तेवरी का विवाद बेकार की कवायद
+भगवानदास
जोपट
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हिन्दी कविता के
क्षेत्र में कविता की अनेक विधाओं के मध्य तेवरी विधा का केंद्रीय स्थान है। अनेक काव्यांदोलनों
का साक्षी रहा हिंदी कविता का वांड्मय तेवरी आंदोलन का भी गवाक्ष रहा है, जहाँ समय की विडंबनाओं
एवं विसंगतियों ने इसे धारदार एवं तेवरयुक्त काव्याभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। मेरी
दृष्टि में ‘तेवर’ से ‘तेवरी’ शब्द का नामांकन
हुआ है, जिन्हें
हम कबीर की आधुनिक उलटबांसियाँ भी कह सकते हैं। अपने छंदानुशासन से, कहन से, मात्राओं की गणना
से और तुकबंदी से ग़ज़ल और तेवरी दोनों अलग-अलग
विधाएँ हैं और जो लोग तेवरी को हिंदी ग़ज़ल का एक रूप मानते हैं, उनकी समझ पर सिवाय
तरस खाने के और क्या किया जा सकता है। एक प्रकार के विरोध-रस को स्थापित करने का यह
‘तेवरी-पक्ष’ का अनूठा प्रयास
है, जो इस
मायने में सार्थक है कि तेवरी विधा अब परिचय की मोहताज नहीं रही है तथा इसे व्यापक
जनस्वीकार्यता भी मयस्सर हुई है। मेरे विचार में ग़ज़ल और तेवरी का विवाद बेकार की कवायद
है।
विगत छब्बीस सालों से ‘तेवरीपक्ष’ का अनवरत प्रकाशन इस बात का प्रमाण है कि
हिंदी काव्य की सतरंगी विधाओं में तेवरी का भी अपना रंग है। श्रीयुत् रमेशराज, अलीगढ़ द्वारा संपादित
प्रकाशित ‘तेवरीपक्ष’ [त्रैमासिक] का अक्टूबर-दिसम्बर-09 अंक मेरे सामने
है, जिससे
गुजरते हुए हिंदी कविता के इस नूतन पक्ष के यमकदार तेवर एवं विरोधरस का आस्वाद मिलता
है। यह धारदार, पैनी
रचनाधार्मिता से ओतप्रोत लघु पत्रिका बिहारी के शब्दों में-‘देखण में छोटी लगे पर घाव
करे गंभीर’ को चरितार्थ करती
है। उदाहरण के रूप में आवरण पर रमेशराज की दो तेवरियों की पंक्तियों ध्यातव्य हैं।
उन्होंने इन तेवरियों को ‘यमकदार तेवरियां’ शीर्षक दिया है। पहली तेवरी की पंक्तियां
देखिए-
तन-चीर का उफ् यूँ हरण, कपड़े बचे बस नाम
को,
हमला हुआ अब लाज पै, अबला जपै बस राम
को।
कविता का काम मनोरंजन
करना नहीं बल्कि गाफिल आदमी को झिंझोड़कर जगाना
है। मध्यकाल में जो काम कबीर ने किया था, वही काम आज ‘तेवरी कविता’ कर रही है। समय के
सच को दिखलाकर आदमी को बाखबर कर रही है। ‘मंच’ स्तंभ के अंतर्गत
‘हिंदी ग़ज़ल के ‘कथ्य का सत्य’, संपादक रमेशराज का
आलेख हिंदी ग़ज़ल की अद्यतन प्रवृत्तियों पर एवं उसके कथ्य पर बेवाक लेख है जो संभवतः
संपादकीय आलेख भी है। उक्त लेख में विद्वान लेखक ने हिंदी ग़ज़ल के कुछ नामचीन रचनाकारों
की ग़ज़लों के आलोक में हिंदी ग़ज़ल के प्रायः समूचे परिदृश्य का तटस्थ विश्लेषण किया
है, जो ग़ज़ल
सृजन पर एक परिपक्व विमर्श है। हिंदी ग़ज़ल का इतिहास, उसका सौंदर्य तत्व, उसके छंदगत व्याकरण-विन्यास एवं उसकी अधुनातन प्रवृत्तियों
पर नीर-क्षीर दृष्टिपात किया गया है। इस लिहाज से यह आलेख ग़ज़ल के अध्येताओं एवं मुझ
जैसे सामान्य किस्म के काव्य-मीमांसकों के लिए समान रूप से उपयोगी है। प्रेयसि की नाजुक
अदाओं, उसके
हुस्नोजमाल एवं विरहाग्नि के रीतिकालीन वर्णन से शुरू हुआ ग़ज़ल का सफर आज के आदमी की
मुश्किलतर होती जाती जिंदगी एवं उसके दैनंदिन संघर्षों के कटु यथार्थ का जीवंत प्रस्तुति
तक, बहस-मुबाहिसा
है, जो इस
लेख को पठनीय एवं संग्रहणीय बनाता है। कुछ प्रमुख हस्ताक्षरों की ग़ज़लों की पंक्तियों
के बहाने यह सार्थक विमर्श किया है उनमें सर्व श्री डॉ. अनंतराम मिश्र ‘अनंत’, डॉ. महेश्वर तिवारी, उर्मिलेश, चांद शेरी, राम सनेही लाल ‘यायावर’, शिव ओम अंबर, डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, नित्यानंद ‘तुषार’, महेश अनघ, कुंवर बेचैन, पुरूषोत्तम ‘यकीन’, आलोक यादव’, अशोक ‘आलोक’, ‘प्रेम’ किरण सागर मिर्जापुरी, श्याम अंकुर ;सं. सौगातद्ध, डॉ. प्रभा दीक्षित, जनकवि श्रमिक, राजेंद्र तिवारी, प्रमुख गजलकार उल्लेखनीय
हैं। जो कथ्य से साक्षात्कार, मर्म को स्पर्श करने वाली जीवंत बिंबात्मकता, सहजता-सरलता या तरलता
आदि बिंदुओं को समाहित किये हुए है। यह आलेख
ग़ज़ल-सृजन के नौसिखियों के लिए भी उपादेय है, साथ में ग़ज़ल के इन दिग्गजों के लिए भी
जो, विरोधाभासों
की ग़ज़लें लिखकर स्वयं को दुष्यंत की परंपरा का वाहक समझ बैठे हैं। इस खोजपरक आलोचना
लेख के लिए संपादक साधुवाद के हकदार हैं। निश्चय ही यह लेख पढ़कर हिंदी ग़ज़ल के समकालीन
कांतिधर्मा चरित्र की भ्रांत अवधारणा का पर्दाफाश होता है। पाठकीय स्तंभ में तेवरी
और ग़ज़ल पक्ष पर चुनिंदा पत्र छपे हैं, जो पाठकों की जागरूकता का परिचायक हैं।
कुछ पत्र प्रशंसा में है तो कुछ पत्र नैगेटिव सुर के भी हैं, जो निष्पक्ष संपादकीय
नीति के द्योतक हैं। आलोचनात्मक पत्र प्रकाशन
स्वस्थ पत्रकारिता का उदाहरण हैं, जो बहुत कम संपादकों में देखा जाता है। अधिकांश
पत्र तेवरी-पक्ष की हिमायत में छपे हैं। इनमें ‘विरोध रस’ के स्वरूप पर और
ग़ज़ल के स्वरूप पर पत्र उल्लेखनीय हैं । उक्त अंक में प्रकाशित तेवरियों में राजकुमार
मिश्र की 12 तेवरियां
दी गयी है, धारदार
तीखे शब्दों की अभिव्यंजना और व्यंग्य का संपुट तेवरी को तीक्ष्ण तेवर प्रदान करता
है। अतएव विसंगतियों एवं विद्रूपताओं को बेनकाब करने में यह विधा जितनी कारगर है, उतनी
ग़ज़ल नहीं। इसके शिल्प-रस,छंद भाषा-शैली, कथन भंगिमाएं, अलंकार, प्रतीक,मुहावरे यहां तक
कि वक्रोक्ति का तीखा दंश इसे ग़ज़ल से अलगाते है और मुकम्मिल तौर पर तेवरी को एक अलग
काव्य विधा का दर्जा देते हैं। कुछ प्रकाशित तेवरियों के रचनाकार हैं- सर्वश्री हितेश
कुमार शर्मा, डॉ.
शारदा प्रसाद सुमन, अंकुर, फजलुर रहमान हाशमी, डॉ. अवधेश, डॉ. सर्वनानंद द्विवेदी, नरेश हिमलपुरकर आदि।
हिंदी साहित्य में ‘विरोध.रस’ की खोज करके रमेशराज ने हमारे वाड्मय को
समृद्ध किया है,
वास्तव में विरोध का भी अपना रस होता है, भले ही उसकी प्रतीति
का आस्वाद तल्खी से परिपूर्ण क्यूं न हो। इस तरह विरोध रस की सृष्टि और तेवरी पर गवेषणात्मक
शोध करके रमेशराज ने स्तुत्य कार्य किया है। और अंत में दर्शन बेजार का तेवरी संग्रह‘ये जंजीरें कब टूटेंगी’ से 16 तेवरियां प्रकाशित
कर संपादक ने इस तेवरी अंक को संग्रहणीय बना दिया है- पत्रिका का समापन रमेश प्रसून, खालिद हुसैन सिद्दीकी, डॉ. प्रद्युम्न भल्ला, संजीव वर्मा सलिल, सुरेंद्र दीप और
डॉ. ब्रहमजीत गौतम की तेवरियों से हुआ हैं । इस प्रकार धारदार व्यंग्य तेवर से युक्त
‘तेवरीपक्ष’ के इस अंक का हिंदी जगत् में स्वागत होगा।
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